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राम भजो........

नीरवता का राज यहां पर, राम भजो.
शापित बस्ती-कुंठित घर-घर, राम भजो.

लहू के छींटे दरवाज़ों पर, राम भजो.
सहम-सहमे दीवारोदर, राम भजो.

सबके माथे पर अनसुलझे प्रश्न यहां,
नहीं किसी के वश में उत्तर, राम भजो.

गांव-गांव में राज लठैतों का प्यारे,
शहर में राजा हो गये तस्कर, राम भजो.

हाथ मोतियों वाले जाने कहां गये,
अब तो हाथों-हाथों खंज़र, राम भजो.

उत्पीड़न के नये बहाने रोज यहां,
खोज रहे सरकारी अफसर, राम भजो.

राम नाम का लिये उस्तरा मूण्ड रहे,
पंडिज्जी भी भक्तों के सर, राम भजो.

आश्रम फाइवस्टार में चेले चरणों में,
और चेलियां हैं हमबिस्तर, राम भजो.

छोटे बच्चे भी नंगी तस्वीरों के,
खेल खेलते मोबाइल पर, राम भजो.

इंटरनेट ने इतना ग्यान बढ़ा डाला,
नंगे हैं सारे कम्प्यूटर, राम भजो.

पंडित,मुल्ला-क़ाजी,नेता-अध्यापक,
सब हैं सपनों के सौदागर, राम भजो.

सह ना पाई भूख वो अपने बच्चों की,
बेच गई फिर हया का ज़ेवर, राम भजो.
--योगेन्द्र मौदगिल

तन मन जुटा कमाई में....

तन मन जुटा कमाई में.
अनबन भाई-भाई में.

रिश्तेदारी कैसे हो..?
बकरे और कसाई में.

मिलने जैसा वही मज़ा,
आने लगा जुदाई में.

पेट नहीं भरता पूरा,
अब तो नेक कमाई में.

बुड्ढा, ग़म खाकर बोला,
दे दो ज़हर, दवाई में.

वो भी आसमान पर हैं,
हम भी हवा-हवाई में.
--योगेन्द्र मौदगिल

कल तक देसी गद्दारों में .....

जिनके पुरखे शामिल थे कल तक देसी गद्दारों में.
उनके वंशज़ मांग रहे हैं सत्ता को दस्तारों में.

गांधी बाबा ने दे दी थी घुट्टी हमें समर्पण की,
इसीलिये तो घूम रहे डाकू संसद गलियारों में.

सृष्टी के आरंभ से हव्वा मुफलिस पर हंटर बरसे,
ठठा रहे हैं आदम अफसर तो नौबत नक्कारों में.

आम आदमी तो गुम है रोटी बेटी की चिन्ता में,
बड़ा आदमी सोच रहा है क्या होगा सरकारों में.

जिन पीरोमुरशिद की यारों हमको आज जरूरत है,
वो पीरोमुरशिद तो कब के सोये पड़े मज़ारों में.

एक परिन्दा बोला इक दिन आसमान को छू लूंगा,
उस दिन से हड़कम्प मचा है जंगल के ऐय्यारों में.

लूटजनी के आरोपों की चिन्ता यारों कौन करे,
नीले गीदड़ शेर बने अपने अपने दरबारों में.
--योगेन्द्र मौदगिल

परखा तो........

नमस्ते॥!

गायब रहा कईं दिन..
कोई विशेष बात नहीं...
बस वही कवि-सम्मेलनीय व्यस्तताएं..
इधर जायें-उधर आयें..

थकान उतारने की कोशिश में एक ग़ज़ल दे रहा हूं

आप पढ़ें गुनगुनाएं और फिर बतायें
कैसी लगी..?

तब तक हम भी सब मित्रों के ब्लाग-दर्शन कर टिपियायें ..!!



सूरत से अन्जाने निकले.
लेकिन बड़े सयाने निकले.

ऊंचे-ऊंचे कंगूरों के,
नीचे भी तहखाने निकले.

बहुत दिनों के बाद मिला वो,
किस्से कईं पुराने निकले.

एक हवेली लाखों चरचे,
पत्थर तक दीवाने निकले.

क्या तेरा, क्या मेरा पर्दा,
लोग किसे बहकाने निकले ?

सच में डरता रहा आईना,
जब पत्थर समझाने निकले.

हाथों में फव्वारा लेकर,
बादल को दिखलाने निकले.

बौने थे किरदार अगरचे,
कद्दावर अफ़साने निकले.

कहने को तो अपने थे वो,
परखा तो बेगाने निकले.
--योगेन्द्र मौदगिल

छलिया तू तो छलिया है.....

जिन आंखों में सुंदर सपन सलोना हो.
वो क्या जाने, दुनिया में दुख-रोना हो.

एक नज़र का प्यार तुम्हें लगता होगा,
मुझको तो लगता है जादू-टोना हो.

प्यार-ब्याह, बीवी-बच्चे, लालन-पालन,
जैसे मनचाहा सा बोझा ढोना हो.

ले-ले कर वो नाम खुदा का पूछ रहे,
इस मिट्टी में बोना तो क्या बोना हो.

छलिया तू तो छलिया है, क्या समझेगा ?
तेरे लिये तो ये जग निरा खिलौना हो.
--योगेन्द्र मौदगिल

आपने खाक़ ज़िन्दगी देखी.....

रफ्ता-रफ्ता जो बेकसी देखी
अपनी आंखों से खुदकुशी देखी

आप सब पर यक़ीन करते हैं
आपने खाक़ ज़िन्दगी देखी

आग लगती रही मक़ानों में
लो मसानों ने रौशनी देखी

एक अब्बू ने मूंद ली आंखें
चार बच्चों ने तीरगी देखी

उतनी ज्यादा बिगड़ गयी छोरी
जितनी अम्मां ने चौकसी देखी

बाद अर्से के छत पे आया हूं
बाद अरसे के चांदनी देखी
--योगेन्द्र मौदगिल

होली भी.....

आप सब को होली की अनंत-असीम शुभकामनाऒं सहित

फूलों पर अलमस्त जवानी नहीं रही.
यारों अब वो बात पुरानी नहीं रही.

रंगों की वो शाम सुहानी नहीं रही.
होली भी अब तो मस्तानी नहीं रही.

भाभी-देवर साली-जीजा में अब तो,
छेड़छाड़ और खींचातानी नहीं रही.

कौन लगायें कांटा चूनर पगड़ी में,
चौराहों की रीत पुरानी नहीं रही.

स्कूल-स्लेबस, ट्यूशन या टीवी फैशन,
बच्चों में हम सी शैतानी नहीं रही.

पाज़ेबों के राग, ताल में डूब गये,
वो लहराती चुनरी धानी नहीं रही.

सिंथेटिक युग में रिश्ते भी सिंथेटिक,
राजा बेटा-बिटिया रानी नहीं रही.

बोन्साई और कैक्टस जोड़ीदार हुये,
घर में तुलसी-रात की रानी नहीं रही.

पापा का घर बिन दादी के सूना है,
मामा के घर में भी नानी नहीं रही.

कवि-सम्मेलन जैसे पशुऒं के मेले,
दाद पारखी-बह्र सयानी नहीं रही.
--योगेन्द्र मौदगिल

सच पूछो तो.....

होठों पर जयघोष, आंख में रखते हैं अभिसार मियां.
भोली मुस्कानों का जम कर करते हैं व्यापार मियां.

चंदन, भगवा, टोपी, दाढ़ी, मंदिर, मस्ज़िद, गुरद्वारे,
भगवान को सुलटाने खातिर भी हैं कितने हथियार मियां.

सच पूछो तो बात प्यार की करना भी बे-मानी है,
ख़ार ज़ेहन में, ख़ार आंख में, तन-मन खारोंख़ार मियां.

जिसके पास जो होगा बंधु वही तो पट्ठा बेचेगा,
इसीलिये तन बेचने वाले होते इज्जतदार मियां.

दौलत ही कम्बख्त सभी की, सब-कुछ हो गयी दुनिया में,
धर्म है पैसा, कर्म है डालर, तन रूबल-दीनार मियां.

ना जीने ना मरने देती ये दुनिया लेकिन फिर भी,
अच्छा चालचलन ही आदम-हव्वा का श्रंगार मियां.

मन में चैन कहां है उस के, तन में भी सुख नहीं रहा,
वो तो केवल लगा रहा है दौलत का अम्बार मियां.
--योगेन्द्र मौदगिल

मर गई मछली.....

पंडित जी क्या कहूं आप से
मर गई मछली निरे ताप से

वो जो हाथ फेर कर होता
कब होता है निरे जाप से

जिसको सीधे समझ ना आई
उसने समझी निरे शाप से

निर्णय लेना भी निर्णय है
पूछ देखिये स्वयं आप से

लोटा चुटिया धोती माला
दूर भेजती यार खाप से

कंठी वाला तोता बोला
कभी ना फिरना यार बाप से

रिश्ता तो रिश्ता है दादा
ना तो हम से नहीं नाप से
--योगेन्द्र मौदगिल

देख ज़माना कैसा आया.......

भई वाह...!!!
पता भी नहीं लगा कि कब साल बीत गया. दरअसल अपने मंचीय साथी कविवर राजेश चेतन की प्रेरणा से मैंने अपना ब्लाग ६ फरवरी २००८ को शुरू किया. एक रचना पोस्ट की. कोई कमैंट नहीं आया. अगले दिन याने ७ फरवरी २००८ को होली के दो छंद डाले. उस पर एक कमैंट आया.
कंचन सिंह चौहान का.
तब से आज अभी तक यह सफ़र जारी है. मज़ा आ रहा है. बहुत सारे नये मित्र इस माध्यम से मिले.
मैं उन सभी का शुक्रिया अदा करता हूं और हां
ब्लाग सज्जा में मैं कतई अनाड़ी था कविता वाचक्नवी जी ने अपने विदेश प्रवास के दौरान मेरे ब्लाग को इतना सजा दिया कि तब से अब तक अभिभूत हूं .
बहरहाल इस आनन्द में आप सब का भी सहयोग जैसा भी रहा उस के प्रति कृतग्यता ग्यापित करते हुये यह ग़ज़ल कंचन सिंह चौहान एवं कविता वाचक्नवी जी को सादर समर्पित करता हूं

कौन भला है किस के बस में.
सारी दुनिया असमंजस में.

सब को आफत बांटने वाला,
जीत खोजता है बेबस में.

राम उसी के मन में बसते,
करुणा है जिस के अंतस में.

साथ आन के मान का पक्का,
यही तो खूबी थी पोरस में.

सब कुछ फीका इस के आगे,
बहुत मज़ा है कविता-रस में.

देख ज़माना कैसा आया,
ना बेटा, ना बेटी बस में.

क़मतर कोई नहीं 'मौदगिल',
ज़हर भरा है सब की नस में.
--योगेन्द्र मौदगिल

एक हाथ में.....

एक हाथ में गंगाजल है.
और दूसरे में पिस्टल है.

तनातनी के युग में लगती,
सारी दुनिया ही पागल है.

बाहर चुप्पी बांटने वाले,
तेरे घर में कोलाहल है.

कहां धरूं, असबाब बताऒ,
कोना-कोना हुआ डबल है.

निंदा-रस का पागल प्रेमी,
चढ़ा मंच पर लिये कमल है.

बात प्यार की सुनता कैसे,
उसके कानों में दलदल है.

सांझ नहीं ये मेरे भाई,
सूरज के आगे बादल है.
--योगेन्द्र मौदगिल

चर कर माल जंवाईं ने............

दारू ने अंगड़ाई ली.
घर की पाई-पाई ली

समझा-समझा टूट गया,
अब्बू ने चारपाई ली.

अपना घर बर्बाद किया,
फोकट जगत-हंसाई ली.

प्यार मुफ्त में बांट दिया,
उसने मोल लड़ाई ली.

लूटा क्या इक बार मज़ा,
सारी उमर दवाई ली.

कूंआ देकर हिस्से में,
अपने हिस्से खाई ली.

उसने सबको जीत लिया,
उसने पीर परायी ली.

चर कर माल जंवाईं ने,
जम कर दांत घिसाई ली.
--योगेन्द्र मौदगिल

अच्छा काम हुआ....

भाई विनय जी,
आपकी सलाह से ब्लाग ने पूर्ववत् काम करना शुरू कर दिया..
आपकी फीस की पहली किश्त के रूप में यह ग़ज़ल आपको सप्रेम समर्पित करता हूं...

वो कहता है नाम हुआ.
मैं कहता बदनाम हुआ.

दिन में हुआ अमीबा वो,
रातों-रात तमाम हुआ.

ढाई आखर प्रेम-पगे,
सारा दौर गुलाम हुआ.

मन में लीला रमी रही,
तन भी ललित-ललाम हुआ.

अम्मां-बाबू पूज लिये,
घर बैठे हर धाम हुआ.

सपने दिखते रहे मुझे,
सोना जो अविराम हुआ.

इक भूखे को रोटी दी,
इक तो अच्छा काम हुआ.
--योगेन्द्र मौदगिल

क्यों.....?

कहीं किसी रोज रिश्तो की तुरपाई के बारे में शायद डा अनुराग के ब्लाग पर पढ़ा था तभी से ये ब्रह्मवाक्य कौंध रहा था बस आज कुछ पंक्तियां हो गयी इसलिये ये पंक्तियां डा अनुराग को सादर समर्पित

रिश्तों पर तुरपाई क्यों..?
फोकट जगत हंसाई क्यों..?

पूत को ब्याहा था तूने,
अम्मां तिरी विदाई क्यों..?

एक के घर में मातम तो,
दूजे घर शहनाई क्यों..?

सूखा-बाढ़ मुसल्सल है,
फिर मैं करूं बिजाई क्यों.

बेटी को चौका-बर्तन,
बेटा चरे मलाई क्यों..?

बेच के पिल्ले सोच रहा,
ये कुतिया हड़काई क्यों..?

फ्लैट तनेंगें छाती पर,
सोच रही अमराई क्यों..?

छोड़ के दारू सोच ज़रा,
बिटिया बिना विदाई क्यों..?

रितुराज देख हैरान कली,
भंवरे से शरमाई क्यों..?

जुगनू भी हैरान हुये,
हमने आग लगाई क्यों..?

मांगने वाला चला गया,
अब तू बाहर आई क्यों..?

नाम से पेट नहीं भरता,
दाता, क़लम थमाई क्यों..?

देख बुलबुले पूछ रहे,
दुनिया हवा-हवाई क्यों..?

जांच रहे धब्बे बोले,
ये चादर रंगवाई क्यों..?

कहो 'मौदगिल' बात है क्या..
थामी दियासलाई क्यों..?
--योगेन्द्र मौदगिल

देवनागरी पर्र रोमन......

टूटी काया, चिंतित मन.
क्या रिश्ते, क्या अपनापन.?

कुछ शिक्षा, कुछ विग्यापन,
बच्चे भूल गये बचपन.

अब वो माथा फोड़ेगा,
उसने देख लिया दरपन.

नहीं मानता बात, मियां,
जिस पर आ जाता यौवन.

अजब-गजब है दौर नया,
नंगा फिरना है फैशन.

दिन पर दिन चढ़ती जाती,
देवनागरी पर्र रोमन.
--योगेन्द्र मौदगिल

गया तो सीना तान गया.....

मंदिर गया आरती लेकर, मस्ज़िद लिये अज़ान गया.
फिर भी विस्फोटों के हिस्से मेरा हिन्दुस्तान गया.

पहचान गया, पहचान गया भई मैं उसको पहचान गया.
चाहे इस के बदले में फिर मेरा कुछ सामान गया.

किसे पता था धरती मैय्या इतने नोट कमा देगी,
गांव से गिनती करता-करता नगरी तक दहक़ान गया.

टूट गयी मज़दूरी, ठंडा चूल्हा लेकर आंखों में,
देख सांझ से बातें करता सूरज हो हलक़ान गया.

रिश्तों की गरमी पैसे के आगे ठण्डीठार हुई,
नाती-पोतों वाला दादा, ठेले पर शम्शान गया.

दिनभर मारामारी-आपाधापी देखी, टूट गया....
तन से फिर इंसान गया तो मन से भी भगवान गया.

हीरे, मोती, ज़ेवर, पैसा तोड़ न पाये जीवन भर,
दो कौड़ी की चमड़ी में पर उसका निपट इमान गया.

सिर्फ प्यार से पास बिठा कर मैंने उस की बात सुनी,
चिंता लेकर आया था वो गया तो सीना तान गया.
--योगेन्द्र मौदगिल

पगला हुआ.....

सोच भी बिखरी हुई है, ज़ेहन भी उलझा हुआ.
आदमी इस दौर का भई किस क़दर बिखरा हुआ.

आग लेकर घूमता है वो जुबां में इस क़दर,
प्यार का भी बोल उसका यों लगे दहका हुआ.

अपने ही लेने लगे, अपनों से पंगा आजकल,
देखते हैं शान से घर-द्वार को ढहता हुआ.

ना सहनशक्ति है, ना ही बात मन के मान की,
एक पल गलबहियां दूजे पल में लो झगड़ा हुआ.

बोर्डिंग-कान्वेंट से लौटे हुये बच्चे की सोच,
मां तो है भई फालतू अब बाप भी बोझा हुआ.

तू दखल ना देना मुझमें, मैं भी दूंगा ना दखल,
अपनी लव-मैरिज़ बचाने को यही सौदा हुआ.

कैसे रिश्ते, कैसे नाते, कैसी दुनिया, 'मौदगिल',
प्यार दिखलाएगा, समझेंगें, सभी पगला हुआ.
--योगेन्द्र मौदगिल

हवा...............

कहीं-कहीं माकूल हवा.
बाक़ी नामाकूल हवा.

देखा-देखी बिगड़ गयी,
भूली अदब-उसूल हवा.

बूढ़े सर को लगती है,
केवल ऊलजलूल हवा.

महलों-महलों रसभीनी,
झुग्गी-झुग्गी शूल हवा.

भीगी धरती बांच रही,
बूंदें, बिजली, धूल, हवा.

उसने आंचल ऒढ़ लिया...
बन गई एप्रिल-फूल हवा.

दरिया ने अंगड़ाई ली,
गयी शरम को भूल हवा.

मन हो तो दे देती है,
तूफ़ानों को तूल हवा.

कूल-किनारे तोड़ेगी,
मस्ती में मशगूल हवा.

उजड़ गये वो सोच रहे,
रब्बा, किसकी भूल हवा..?

देख 'मौदगिल' जांच रही,
कश्ती के मस्तूल हवा.
--योगेन्द्र मौदगिल

कच्चे लंगोट से........

कच्चे लंगोट से कभी पक्के लंगोट से.
वो राजनीति में रहे डंके की चोट से.

सोना जो रहे शुद्ध किसी काम का नहीं,
ढलते हैं गहने तो मियां थोड़े से खोट से.

दो गालियां के जूतियां दो, आप की मर्जी,
मरहूम ना करना मगर नेता को वोट से.

ईमान घर में रख के वो दफ्तर चले गये,
परहेज़ कैसा दोस्तों अफसर को नोट से.

ता-ज़िंदगी मर्यादा किसी काम की नहीं,
बालि को मारा राम ने पेड़ों की ऒट से.

जितनी मिली अफीम ससुरी फीस बन गयी,
लो आ रही है गंध वकीलों के कोट से.

योग हो, पूजा के शिक्षा 'मौदगिल' सब को,
फुरसत कहां है आजकल लूटम-खसोट से.
--योगेन्द्र मौदगिल

जारी रख

मन भरमाना जारी रख
कसमें खाना जारी रख

प्यार सिखादे दुनिया को
नग़में गाना जारी रख

बच्चे पल ही जाएंगें
बोझ उठाना जारी रख

जब तक सारे ना माने
बात सुनाना जारी रख

ज्यादा हां-हां ठीक नहीं
थोड़ी ना-ना जारी रख

दुनियादारी सीख ले तू
फूल चढ़ाना जारी रख

मंत्र सफलता का प्यारे
पूंछ हिलाना जारी रख

अला-बला सब दूर रहें
धूप दिखाना जारी रख

रिश्वत ले या कर चोरी
नोट कमाना जारी रख

गलती से रब मिल जाये
सिर खुजलाना जारी रख

दिखा चुटकुलों के तेवर
मंच उठाना जारी रख
--योगेन्द्र मौदगिल