शेर सभी सोये पड़े, बिदक रहे लंगूर..
सत्ताधारी लोमड़ी, सत्ता-मद में चूर...
धीरे-धीरे बढ गया, इनका-उनका रोग..
बाबा का हठ-योग तो, सरकारी लठ-योग...
बूढी आज़ादी इधर, रही मनाती सोग..
और उधर पिटते रहे, हाय निहत्थे लोग...
दिग्गी भी सठिया गए, चिंतित है सरकार..
राजघाट को कर दिया, सुषमा ने गुलज़ार...
बुरे वक़्त के सामने कुंद हुए हथियार.
कांग्रेस को जूता मिला , बाबा को सलवार..
शासन तो अँधा हुआ, बहरी है सरकार..
बदला अपना वक़्त पर, जनता लेगी यार...
आना, इक दिन आओगे, क्या ले लोगे वोट..
चुभती बहुत है धूप में, अँधेरे की चोट....
आम आदमी के लिए ना दिन है ना रात..
पर बाबा को दीखता कालाधन दिन-रात..
बेच-बेच कर योग को किये करोड़ों पार..
तेरी लीला को लखूं या देखूं सरकार..
इधर भी भ्रष्टाचार है, उधर भी भ्रष्टाचार.
तू भी साहूकार है, वो भी साहूकार..
सब झोटों के बीच में, बछड़े रहे पुकार.
इधर सभी कस्साब तो, उधर भी मारामार.
** योगेन्द्र मौदगिल
17 comments:
wah !
कविता तो सुन्दर है, लेकिन रामदेव जी से अच्छा कोई विकल्प है...
भ्रष्टाचार नहीं आसान रे साधो,
बहुत बड़ा बलवान।
@ bhartiya naagrik ji, Palaayanvadi vikalp bhi to theek nahee....main to nispaksh man se yahi kahoonga ki teda hai par mera hai....
@ Albela ji, Shukriya
@ Praveen ji aapka bhi...
धीरे-धीरे बढ गया, इनका-उनका रोग..
बाबा का हठ-योग तो, सरकारी लठ-योग.
वाह!
बदला अपना वक्त पर जनता लेगी यार
बहुत बढिया
धन्यवाद इस रचना के लिये
प्रणाम स्वीकार करें
बढ़िया व्यंग ... पर भ्र्शताचार और कालेधन पर किसी को तो बोलना ही पड़ेगा ?
Vaah ji, krantikari kavita ke liye aabhar.
भाई जी आज के हालातों पर जो आपने कहा है क्या खूब कहा है...एक एक दोहा आपके के बेजोड़ हुनर को दर्शा रहा है. लपेट लपेट कर और भिगो भिगो कर कैसे मारा जाता ये कला कोई आपसे सीखे. वाह भाई जी वाह...कवि धर्म का निर्वाह कैसे किया जाए ये सिखा दिया है आपने. बधाई स्वीकारो जी
नीरज
ग़ज़ब के दोहे .. तेज़ व्यंग की धार हमेशा की तरह गुरु देव ...
वर्तमान स्थित का सटीक चित्रण
निष्पक्ष होकर लिखी गई रचना।
धीरे-धीरे बढ गया, इनका-उनका रोग..
बाबा का हठ-योग तो, सरकारी लठ-योग...
मुझे ये काफ़ी अच्छा लगा
... और यह भी
शासन तो अँधा हुआ, बहरी है सरकार..
बदला अपना वक़्त पर, जनता लेगी यार...
यथार्थ ! रोचक और सटीक व्यंग्य ।
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अच्छा लगा
शासन तो अँधा हुआ, बहरी है सरकार..
बदला अपना वक़्त पर, जनता लेगी यार...
कुछ समझ में नहीं आता किधर जाएँ
जोर दार मौदगिल जी ।
बदला, अपने वक्त पर, जनता लेगी यार ।
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