१
अन्तर्मन में
गहरा तम है
पाप की गठरी सिर पे लादे
दौड़ रहे हैं फर्ज़ी-प्यादे
ये अनहोनी
भी क्या कम है
कैसे होंगे सपने पूरे
आशा के हर महल अधूरे
करें सामना
किसमें दम है
एकाकी जीवन ढोते हैं
वै हंसते हैं ये रोते हैं
जिनके हिस्से
केवल ग़म है
२
भेड़िये सी रात है
लोमड़ी से दिन
अब नहीं महफुज़ यारों
ज़िन्दगी कमसिन
हर गली में बंद है
ढोलकी की थाप
दे दिया किसने भला
इस नगर को शाप
काटता हर आदमी
क्षण ऊंगलियों पे गिन
खिड़कियों के रास्ते
आयी हवा
दे रहा है कौन
ये मुझको सदा
मुर्दाघरों के प्रेत हैं
के बोतलों के जि़न्न
--योगेन्द्र मौदगिल
23 comments:
yogendraji donon navgeet atyant gahre aur sahityik star par bahut hi umda udaharan hain main hriday se aapko badhai preshit karta hoon
vah vah
kya baat hai...
बहुत कमाल की रचनाएं हैं दोनो,
रामराम.
वाह........मोदगिल साहब......आज तो एक नया..........कोमल कवी का रूप नज़र आ रहा है आपकी रचनाओं में नवगीत के साथ........जीवन के रंग से ओत प्रेत रचना..........बेमिसाल
बहुत सुंदर रचनाएँ हैं। लूटने को एक भी बहुत थी।
पता नहीं क्यों गीतों की तुलना में नवगीत मुझे उतना रास नहीं आते।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
भेड़िये सी रात है
लोमड़ी से दिन
अब नहीं महफुज़ यारों
ज़िन्दगी कमसिन
भाईजी ऐसा विलक्षण लिखना आपके ही बस की बात है...वाह...क्या कहूँ शब्द नहीं मिल रहे प्रशंशा को...
नीरज
दोनों ही रचनाएँ एकदम नए अंदाज़ में लगी. बहुत सुन्दर. आभार.
behad umda, behatareen rachnayen. maudgil ji , badhai.
दिल के साथ-साथ दिमाग भी जीत लिया जी।
हर गली में बंद है
ढोलकी की थाप
दे दिया किसने भला
इस नगर को शाप
काटता हर आदमी
क्षण ऊंगलियों पे गिन
Bahut hi satik panktiyan.
योगेन्द्र जी, नतमस्तक हूँ।
अद्भुत नवगीत। अचंभित करते हुये अपने नायाब शब्द-विन्यास और अनूठे बिम्बों से...
'कैसे होंगे सपने पूरे
आशा के हर महल अधूरे
करें सामना
किसमें दम है'
-निराशावाद.
'काटता हर आदमी
क्षण ऊंगलियों पे गिन'
- पुनः निराशावाद.
'खिड़कियों के रास्ते
आयी हवा'
- यहाँ आशा की एक किरण जरूर है, भले ही वह प्रेत या जिन्न की सदा ही क्यों न हो.
भेड़िये सी रात है
लोमड़ी से दिन
अब नहीं महफुज़ यारों
ज़िन्दगी कमसिन
नूतन प्रतीकों द्वारा अपने समकालीन वातावरण को अभिव्यक्त कियाहै ,सशक्त लेखन ,सुंदर नवगीत
"एकाकी जीवन ढोते हैं
वै हंसते हैं ये रोते हैं
जिनके हिस्से
केवल ग़म है"
सुंदर नवगीत...
हर गली में बंद है
ढोलकी की थाप
दे दिया किसने भला
इस नगर को शाप
काटता हर आदमी
क्षण ऊंगलियों पे गिन
--दोनों ही नवगीत अद्भुत है .
दोनों नवगीत सुंदर हैं।
पाप की गठरी सिर पे लादे
दौड़ रहे हैं फर्ज़ी-प्यादे
ये अनहोनी
भी क्या कम है
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हर गली में बंद है
ढोलकी की थाप
दे दिया किसने भला
इस नगर को शाप
काटता हर आदमी
क्षण ऊंगलियों पे गिन
सुंदर एवं सहज प्रवाहयुक्त।
क्या खूब लिखा है ?
भेड़िये सी रात है
लोमड़ी से दिन
अब नहीं महफुज़ यारों
ज़िन्दगी कमसिन
........बहुत ही सजीव लाइनें हैं .
Shabdheen! Lajawaab!
Dono geet behad khoobsoorat
God bless
RC
दोनों नवगीत अच्छे बन गए हैं, दूसरा नवगीत वर्तमान में पंजाब की स्तिथि पर बिलकुल ठीक बैठता है.
साभार
हमसफ़र यादों का.......
आपका बिलकुल नया रूप मिला देखने को। बहुत ही सुन्दर! हार्दिक आभार।
भाई योगेन्द्र जी,
आपकी लेखन क्षमता को मेरा नमस्कार है, कहो और क्या कहूं हाँ कुछ दिन व्यस्त रहा वरना गीत तो छपते ही पढ़ लिए थे.
भेड़िये सी रात है
लोमड़ी से दिन
aise expressions ke prayog ne bahut prabhaavit kiya vaakayi me :)
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