दो नवगीत


अन्तर्मन में
गहरा तम है

पाप की गठरी सिर पे लादे
दौड़ रहे हैं फर्ज़ी-प्यादे
ये अनहोनी
भी क्या कम है

कैसे होंगे सपने पूरे
आशा के हर महल अधूरे
करें सामना
किसमें दम है

एकाकी जीवन ढोते हैं
वै हंसते हैं ये रोते हैं
जिनके हिस्से
केवल ग़म है



भेड़िये सी रात है
लोमड़ी से दिन
अब नहीं महफुज़ यारों
ज़िन्दगी कमसिन

हर गली में बंद है
ढोलकी की थाप
दे दिया किसने भला
इस नगर को शाप
काटता हर आदमी
क्षण ऊंगलियों पे गिन

खिड़कियों के रास्ते
आयी हवा
दे रहा है कौन
ये मुझको सदा
मुर्दाघरों के प्रेत हैं
के बोतलों के जि़न्न
--योगेन्द्र मौदगिल

23 comments:

Unknown said...

yogendraji donon navgeet atyant gahre aur sahityik star par bahut hi umda udaharan hain main hriday se aapko badhai preshit karta hoon
vah vah
kya baat hai...

ताऊ रामपुरिया said...

बहुत कमाल की रचनाएं हैं दोनो,

रामराम.

दिगम्बर नासवा said...

वाह........मोदगिल साहब......आज तो एक नया..........कोमल कवी का रूप नज़र आ रहा है आपकी रचनाओं में नवगीत के साथ........जीवन के रंग से ओत प्रेत रचना..........बेमिसाल

दिनेशराय द्विवेदी said...

बहुत सुंदर रचनाएँ हैं। लूटने को एक भी बहुत थी।

admin said...

पता नहीं क्यों गीतों की तुलना में नवगीत मुझे उतना रास नहीं आते।

-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

नीरज गोस्वामी said...

भेड़िये सी रात है
लोमड़ी से दिन
अब नहीं महफुज़ यारों
ज़िन्दगी कमसिन

भाईजी ऐसा विलक्षण लिखना आपके ही बस की बात है...वाह...क्या कहूँ शब्द नहीं मिल रहे प्रशंशा को...
नीरज

P.N. Subramanian said...

दोनों ही रचनाएँ एकदम नए अंदाज़ में लगी. बहुत सुन्दर. आभार.

Yogesh Verma Swapn said...

behad umda, behatareen rachnayen. maudgil ji , badhai.

Anil Pusadkar said...

दिल के साथ-साथ दिमाग भी जीत लिया जी।

अभिषेक मिश्र said...

हर गली में बंद है
ढोलकी की थाप
दे दिया किसने भला
इस नगर को शाप
काटता हर आदमी
क्षण ऊंगलियों पे गिन

Bahut hi satik panktiyan.

गौतम राजऋषि said...

योगेन्द्र जी, नतमस्तक हूँ।
अद्‍भुत नवगीत। अचंभित करते हुये अपने नायाब शब्द-विन्यास और अनूठे बिम्बों से...

hempandey said...

'कैसे होंगे सपने पूरे
आशा के हर महल अधूरे
करें सामना
किसमें दम है'

-निराशावाद.

'काटता हर आदमी
क्षण ऊंगलियों पे गिन'

- पुनः निराशावाद.

'खिड़कियों के रास्ते
आयी हवा'

- यहाँ आशा की एक किरण जरूर है, भले ही वह प्रेत या जिन्न की सदा ही क्यों न हो.

मोना परसाई said...

भेड़िये सी रात है
लोमड़ी से दिन
अब नहीं महफुज़ यारों
ज़िन्दगी कमसिन
नूतन प्रतीकों द्वारा अपने समकालीन वातावरण को अभिव्यक्त कियाहै ,सशक्त लेखन ,सुंदर नवगीत

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

"एकाकी जीवन ढोते हैं
वै हंसते हैं ये रोते हैं
जिनके हिस्से
केवल ग़म है"
सुंदर नवगीत...

Alpana Verma said...

हर गली में बंद है
ढोलकी की थाप
दे दिया किसने भला
इस नगर को शाप
काटता हर आदमी
क्षण ऊंगलियों पे गिन


--दोनों ही नवगीत अद्‍भुत है .

रविकांत पाण्डेय said...

दोनों नवगीत सुंदर हैं।

पाप की गठरी सिर पे लादे
दौड़ रहे हैं फर्ज़ी-प्यादे
ये अनहोनी
भी क्या कम है
***************
हर गली में बंद है
ढोलकी की थाप
दे दिया किसने भला
इस नगर को शाप
काटता हर आदमी
क्षण ऊंगलियों पे गिन

सुंदर एवं सहज प्रवाहयुक्त।

दिनेश शर्मा said...

क्या खूब लिखा है ?

डॉ. मनोज मिश्र said...

भेड़िये सी रात है
लोमड़ी से दिन
अब नहीं महफुज़ यारों
ज़िन्दगी कमसिन
........बहुत ही सजीव लाइनें हैं .

Pritishi said...

Shabdheen! Lajawaab!
Dono geet behad khoobsoorat

God bless
RC

Anonymous said...

दोनों नवगीत अच्छे बन गए हैं, दूसरा नवगीत वर्तमान में पंजाब की स्तिथि पर बिलकुल ठीक बैठता है.

साभार
हमसफ़र यादों का.......

Dr. Amar Jyoti said...

आपका बिलकुल नया रूप मिला देखने को। बहुत ही सुन्दर! हार्दिक आभार।

के सी said...

भाई योगेन्द्र जी,
आपकी लेखन क्षमता को मेरा नमस्कार है, कहो और क्या कहूं हाँ कुछ दिन व्यस्त रहा वरना गीत तो छपते ही पढ़ लिए थे.

Sajal Ehsaas said...

भेड़िये सी रात है
लोमड़ी से दिन
aise expressions ke prayog ne bahut prabhaavit kiya vaakayi me :)