देवनागरी पर्र रोमन......

टूटी काया, चिंतित मन.
क्या रिश्ते, क्या अपनापन.?

कुछ शिक्षा, कुछ विग्यापन,
बच्चे भूल गये बचपन.

अब वो माथा फोड़ेगा,
उसने देख लिया दरपन.

नहीं मानता बात, मियां,
जिस पर आ जाता यौवन.

अजब-गजब है दौर नया,
नंगा फिरना है फैशन.

दिन पर दिन चढ़ती जाती,
देवनागरी पर्र रोमन.
--योगेन्द्र मौदगिल

29 comments:

Vinay said...

रोमन अत्याचार' अब नहीं सहेंगे,
बोलो हिन्दी तुम,सबसे यही कहेंगे।

ताऊ रामपुरिया said...

बहुत सही कहा.

रामराम.

Anil Pusadkar said...

नंगा घूमना फ़ैशन…………………॥क्या बात कही है योगेन्द्र भाई।

नीरज गोस्वामी said...

भाई योगेन्द्र जी अपनी खडाऊ मुझे भेज दो...रोज पूजा करूँगा...आप क्या लिख देते हो...वाह वा...भाई गज़ब करते हो आप...कोई एक शेर हो तो तारीफ भी करूँ पूरी की पूरी ग़ज़ल उम्दा है....धन्य हैं आप...
नीरज

seema gupta said...

" एक एक शेर लाजवाब ....यथार्थ का दर्पण दिखलाता "

Regards

Unknown said...

सुंदर विचारों का मनमोहक प्रस्तुतीकरण!

परमजीत सिहँ बाली said...

यथार्त पर अधारित एक सुन्दर रचना है। बहुत उम्दा!

Manish Kumar said...

आपकी कविताओं की खासियत यही है कि आप आस पास के समाज में हो रही बातों को सरल और सहज काव्य छंदों के रूप में प्रस्तुत कर देते हैं जिस से आम व्यक्ति भी कविता से अपने आपको जुड़ा पाता है।

दिगम्बर नासवा said...

modgil sahab ............ आपके अंदाज की एक और खूबसूरत कड़ी, सब के सब sher lajawaab.
मजा आ गया

admin said...

बहुत ही धांसू गजल। छोटी बहर में आप कमाल करते हैं।

संगीता पुरी said...

बहुत सुंदर ....

राज भाटिय़ा said...

बहुत सुंदर योगेन्दर जी, बहुत सटीक लिखा आप ने धन्यवाद

गौतम राजऋषि said...

सब पर चढ़ कर बोल रहा
तेरी गज़लों का ये फ़न

"अर्श" said...

GAATA KYUN HAI GEET KHUSHI KE
DEKH LE USAKA BAHARAAAPAN ,

MAUDAGIL SAHAB DERI SE AANE KE LIYE MUAAFI CHAHUNGA ,BAHOT HI KAMAAL KE LIKHA HAI AAPNE ,MAZE AAGAYE DHERO BADHAI SAHAB....


ARSH

प्रताप नारायण सिंह (Pratap Narayan Singh) said...

वाह ! बहुत बढ़िया व्यंग !

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

क्या खूब कही.

Dr. Amar Jyoti said...

'कुछ शिक्षा कुछ विज्ञापन…'
कठोर समसामयिक यथार्थ की सफल अभिव्यक्ति।
बधाई।

शोभा said...

अच्छा लिखा है।

कार्तिकेय मिश्र (Kartikeya Mishra) said...

आपकी सबसे बड़ी खूबी यह है कि आप आम आदमी के रोजमर्रा के जज़्बातों को ज़बान मुहैया करा देते हैं।

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" said...

वाह्! महाराज....क्य‌ा खूब लिखा है.
यथार्थ को कितनी खूबी से शब्दों में ढाला है आपने.

Abhishek Ojha said...

बहुत बढ़िया !

राजीव तनेजा said...

मज़ेदार

hem pandey said...

हमेशा के तरह मजेदार रचना.

निर्मला कपिला said...

बहुत बडिया कविता है आपकी कलम का जादू चलता रहे बधाई

BrijmohanShrivastava said...

अपनापन गया ,बचपन गया ,अब दर्पण देखने से क्या फायदा जब मियां ही बात नहीं मान रहा /जहाँ तक नंगेपन की प्रश्न है अब तो हालत यह हो चुकी है कि आदमी दूसरों का नंगा पर ढकने ख़ुद नंगा हो रहा है

Manoshi Chatterjee मानोशी चटर्जी said...

हर शेर अच्छा..छोटे बहर में एक और बहुत अच्छी ग़ज़ल आपकी।

प्रदीप मानोरिया said...

भयंकर यथार्थ

डॉ .अनुराग said...

aaj ke samaj ko dekhne ki aapki vishesh drishti aor sandesh dene ka khas andaj...

कंचन सिंह चौहान said...

मनीष जी की ही बात को दोहराना चाहूँगी और खड़ाऊँ जरा थोक में खरीद लीजियेगा, आवश्यकता इधर भी है :)