खुली आंखों से सपने देखता हूं.
मैं नज़रों को नज़ारे बेचता हूं.
रुको, मत पांव कश्ती पर टिकाना,
मैं लहरों को किनारे भेजता हूं.
तुम अपनी आंख के जाले से पूछो,
मैं ऐसा कब हूं जैसा दीखता हूं.
न जाने किस नशे आजकल हूं ?
मैं खुद को भी उसी से पूछता हूं.
वक्त मेरा बिगाड़ेगा भला क्या,
मैं माझी हूं, खुदा हूं, देवता हूं.
करेंगें नुक्ताचीनी करने वाले,
ना मुड़ता हूं न मुड़कर देखता हूं.
किसी को गर्ज़ रहती हो रहे, मैं,
गीली धरती पे अंबर ऒढ़ता हूं.
यक़ीनन झूठ से है रिस्तेदारी,
अमूमन रात-दिन सच बोलता हूं.
लगा कर चार गमले छत के ऊपर,
मुसल्सल घर में जंगल ढूंढता हूं.
अदब, आदाब, इज्जत, मा-बदौलत,
नयी पीढ़ी से रुखसत देखता हूं.
अजब हूं मैं जमाने में बिरादर,
के आंखों में हया को ढूंढता हूं.
मैं बातों में तुम्हारी आ गया हूं,
तभी तो तुझ में खुद को खोजता हूं.
मैं खुद को ही नहीं पहचान पाता,
कसम से रोज शीशा देखता हूं.
--योगेन्द्र मौदगिल
22 comments:
आदरणीय योगेन्द्र जी..
बेहद गहरी गज़ल। ये शेर खास पसंद आये..
रुको, मत पांव कश्ती पर टिकाना,
मैं लहरों को किनारे भेजता हूं.
करेंगें नुक्ताचीनी करने वाले,
ना मुड़ता हूं न मुड़कर देखता हूं.
लगा कर चार गमले छत के ऊपर,
मुसल्सल घर में जंगल ढूंढता हूं.
***राजीव रंजन प्रसाद
Yogendraji, poori gazal achhi hai magar jaisa ki Rajeevji ne likha , ve chuninda sher to gajab hain bhai.
bhut sundar
bahut sahi hai bhai. kya baat hai !
मैं खुद को ही नहीं पहचान पाता,
कसम से रोज शीशा देखता हूं
bahut khoob Sir !
रुको, मत पांव कश्ती पर टिकाना,
मैं लहरों को किनारे भेजता हूं.
वक्त मेरा बिगाड़ेगा भला क्या,
मैं माझी हूं, खुदा हूं, देवता हूं.
करेंगें नुक्ताचीनी करने वाले,
ना मुड़ता हूं न मुड़कर देखता हूं.
अदब, आदाब, इज्जत, मा-बदौलत,
नयी पीढ़ी से रुखसत देखता हूं.
भाई मुदगिल जी मेरा फर्शी सलाम कबूल करें....क्या एक से बढ़ कर एक कद्दावर शेर कहें हैं आपने...कमाल कर दिया हुजूर...कमाल.
नीरज
लगा कर चार गमले छत के ऊपर,
मुसल्सल घर में जंगल ढूंढता हूं.
अदब, आदाब, इज्जत, मा-बदौलत,
नयी पीढ़ी से रुखसत देखता हूं.
अजब हूं मैं जमाने में बिरादर,
के आंखों में हया को ढूंढता हूं.
kya baat hai yogendr ji......ab aaya mahfil me kuch lutf sa......bahut khoob....
lajawaab
रुको, मत पांव कश्ती पर टिकाना,
मैं लहरों को किनारे भेजता हूं.
न जाने किस नशे आजकल हूं ?
मैं खुद को भी उसी से पूछता हूं.
मैं बातों में तुम्हारी आ गया हूं,
तभी तो तुझ में खुद को खोजता हूं.
bahut khub...hamesha ki tarah umda
अजब हूं मैं जमाने में बिरादर,
के आंखों में हया को ढूंढता हूं.
- सही कह रहे हैं जनाब।
तुम अपनी आंख के जाले से पूछो,
मैं ऐसा कब हूं जैसा दीखता हूं.
"bhut hee sunder gazal, ye sher bhut accha lga, mind blowing"
Regards
Yogendra ji aap bhut badhiya or bhut hi gahara likhte hai. jari rhe.
बहुत उम्दा, क्या बात है!
रुको, मत पांव कश्ती पर टिकाना,
मैं लहरों को किनारे भेजता हूं.
बहुत जोरदार ! मजा आगया ! भाई थम मन्नै जित
उलझाकै आए थे ना ! उत तैं इब्बी छुत्या सूं ! और सीधा थारै
धोरे आ लिया सूं ! राम राम !
मैं ऐसा कब हूं जैसा दीखता हूं.
आपने ये लाइन मेरे लिए लिखी है ना भाई ?
मैंने अपनी दूसरी किश्त लिख ली है ! आज तिवारी
साहब का कंप्यूटर खाली मिलेगा रात को ! तब छापूंगा !
आप सुबह जरुर से आ जाना !
आपकी रचना बहुत पसंद आई ! मुझे भी सिखाओगे ?
भूतमहल में आना मत भुलना कल !
बहुत भावपूर्ण !
बहुत खूब। हमेशा की तरह बेहतरीन।
मैं खुद को ही नहीं पहचान पाता,
कसम से रोज शीशा देखता हूं.
काश की हम सब रोजाना यह शीशा देखते !!
बहुत ही सुन्दर रचना हमेशा की तरह से
धन्यवाद
लगा कर चार गमले छत के ऊपर,
मुसल्सल घर में जंगल ढूंढता हूं.
अदब, आदाब, इज्जत, मा-बदौलत,
नयी पीढ़ी से रुखसत देखता हूं.
bahut badhiya...shaandar ghazal hai.
bhaut koob likha h
आप सभी का प्यार-सर माथे पर..
ये सच है मैं नहीं लिखता आप मित्रों की स्नेहिल दाद लिखवा लेती है मुझसे...
बहरहाल..
मैं और बेहतर कहने की कोशिश करता हूं..
लगा कर चार गमले छत के ऊपर,
मुसल्सल घर में जंगल ढूंढता हूं.
musalsal bharam me hun kya likhun bas ye ke mujjasam hai aapki ye ghazal.....sundar rachana ke liye badhai swikaren..
regards
Arsh
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