वक्त की धारा कहां, कब, मोड़ देती है बदन.
सच तो ये है आत्मा भी, छोड़ देती है बदन.
भूख लेती है बहुत कम्बख्त जब अंगड़ाईयां,
कसमसाहट पेट की भई तोड़ देती है बदन.
झोंपड़ों में भी जवानी आ तो जाती है मगर,
चंद सिक्कों की खनक, झिंझोड़ देती है बदन.
कोशिशें हर दौर में चलती रहीं हैं दोस्तों,
जिम्मेवारी वक्त की निच्चोड़ देती है बदन.
पेट से चलते हैं पैडल, पांव से मत मानना,
मित्रवर, जीवन की रिक्शा तोड़ देती है बदन.
आपसी रिश्तों में गरमाहट जरूरी 'मौदगिल',
भावना, संवेदना बन जोड़ देती है बदन
--योगेन्द्र मौदगिल
12 comments:
झोंपड़ों में भी जवानी आ तो जाती है मगर,
चंद सिक्कों की खनक, झिंझोड़ देती है बदन.
ये दर्द गहराई तक भेदता है ! तीव्र वेदना !
शुभकामनाएं !
bahut hi maarmik .dil ko chhu gayi ye post aapki
वाह ! सुबह सुबह बहुत अच्छी ग़ज़ल. बहुत सुंदर.
गज़ब की कविता है, योगेन्द्र मौदगिल जी. आभार!
बहुत सुंदर कविता लिखी है आपने ! धन्यवाद
एवं बधाई !
बहुत ही सुन्दर गजल हे, अब किस पक्त्ति की तारीफ़ करु किसे छोडु, सब एक से बढ कर एक, बहुत बहुत धन्यवाद
झोंपड़ों में भी जवानी आ तो जाती है मगर,
चंद सिक्कों की खनक, झिंझोड़ देती है बदन.
वक्त की धारा कहां, कब, मोड़ देती है बदन.
सच तो ये है आत्मा भी, छोड़ देती है बदन
पहली दो लाइनें पढ़ी लगा इस में सार है...
झोंपड़ों में भी जवानी आ तो जाती है मगर,
चंद सिक्कों की खनक, झिंझोड़ देती है बदन.
फिर लगा इसमें है...
यदि ये ही करता रहा तो पूरी गजल यहीं उड़ेल दूंगा।
सुंदर अति उत्तम। बढि़या शब्द खत्म। अब सोने जा रहा हूं।
वक्त की धारा कहां, कब, मोड़ देती है बदन.
सच तो ये है आत्मा भी, छोड़ देती है बदन.
" but achee gazal,ek athah sach ke sath, bhut sunder"
Regards
अद्भुत है आपका लेखन.
दर्द से सरोबर.
बहुत खूब.
भाई मैंने आपके ब्लागों का अवलोकन कर लिया था.इसके पहले कि उन्हें पढ़कर मैं अपनी राय लिखूं,आप खुद ही मेरे ब्लाग तक पहुंच गए.दरअसल,पानीपत से जागरण प्रबंधन ने मेरा स्थानांतरण दिल्ली कर दिया था.इसलिए भेंट भी नहीं हो पाई.इस बीच शीघ्र ही पानीपत आने की योजना है.मिलूंगा.चंडीगढ़ में रह कर भी रोज आपकी तस्वीर व रचनाओं से ब्लाग पर रूबरू हो रहा हूं.साथ ही नियमित टिप्पणी भी लिखूंगा.
ताऊ रामपुरिया जी, अनिल जी, मीत जी, स्मार्ट इंडियन जी, फंदेबाज जी, भाटिया जी, नीतीश जी, सीमा जी और बालकिशन जी आप सभी के विचारों के प्रति कृतग्यता ग्यापित करता हूं और त्रिपाठी जी आप को भी. आपके पानीपत आगमन की प्रतीक्षा रहेगी. आपकी टिप्पणी से कुछ पुराने सीन ताज़ा हो गये किन्ही कारणों से मैं भी जागरण में स्तम्भ नहीं दे पा रहा हूं.
'पेट से चलते हैं पैडल…'
बहुत,बहुत ही मार्मिक।
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