एक टाइम - पास प्रयास
आज फिर इक गुनाह कर लूँगा.
तुझ को देखूंगा, आह कर लूँगा.
मैं शिवाले मैं चाह कर लूँगा.
आँख मूंदूंगा, वाह कर लूँगा.
मेरी आँखों में डूब जाओ तो
खुद को मैं बे-पनाह कर लूँगा.
भर नज़र देखना चरागों को,
मैं हवाओं में राह कर लूँगा.
एक मुद्दत से भूख है शायद,
मैं बदन को सियाह कर लूँगा.
'मौदगिल' मौज मुद्दआ मेरा
यों फकीरी को शाह कर लूँगा.
--योगेन्द्र मौदगिल
12 comments:
वाह ! क्या टाइम पास प्रयास है :)
सुंदर.
यों फकीरी को शाह कर लूँगा.
मन को छू गई यह बात!
ये प्रयास टाइम पास नहीं है। ये तो ‘उस’ को पाने की चाह है जो मिल जाए तो फिर कुछ पाने की ज़रूरत ही नहीं रहती।
एक मुद्दत से भूख है ....
अगर टाईमपास में ऐसे गुनाह करते हो तो फुर्सत में क्या करते होगे यह समझ आ रहा है !
काश हम भी ऐसे गुनाह कर पायें !
हाय योगेन्द्र हम न हुए ....
:-)
बहुत खूब निकला यह टाइमपास प्रवाह.
भर नज़र देखना चरागों को,
मैं हवाओं में राह कर लूँगा.
वाह ..बहुत सुन्दर
वाह ... गुरुदेव टाइम पास करते करते भी कमाल कर दिया आपने तो ...
लाजवाब ग़ज़ल है ...
बहुत सुन्दर्।
वाह ..बहुत सुन्दर रचना...
बहुत खूब भाई जी अच्छा टाइम पास है.
नीरज
वाह..क्या खूब लिखा है आपने।
खास
यही आवारगी आकर्षित करती है।
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