उन सब ने खंडित कर डाला जिन पर था विश्वास मियां
क्या अपनों को धर के चाटे क्या अपनों की आस मियां
इस बस्ती से आते-जाते नाक पे कपड़ा रख लेना
बड़ी घिनौनी लगती है अब आदम की बू-बास मियां
रोज-रोज का खून-खराबा रोज-रोज की दहशत से
दिन पर दिन घटता जाता है जीवन का उल्लास मियां
कैकेयी की माया से दशरथ अगर कहीं बच जाता तो
मुमकिन था के टल ही जाता राम को तब बनवास मियां
किसी काम में कोई अड़चन भूले से भी नहीं हुई
जब से अफसर को डाली है हरे नोट की घास मियां
लाज़िम नहीं है तेरे-मेरे कहने से ही काम बने
अंधों की दुनिया में काने ही होते हैं खास मियां
कहने हैं तो कहो 'मौदगिल' नये-नये अशआर सदा
वरना छोड़ो क्यों करते हो शब्दों से सहवास मियां
- योगेन्द्र मौदगिल
27 comments:
बदल रहे है रिश्तें-नाते,कर इसका आभाष मियाँ,
सज्जनता का होता है,इस दुनिया में परिहास मियाँ,
लोग लगे है निज विकास में,कौन करें दूजों की खैर,
गैर नही अब तो अपने भी तोड़ रहे हैं आस मियाँ,
ये तो चार लाइनें बन गयी पर आपने तो एक शानदार रेखाचित्र खींच डाला इस दुनिया का..बहुत बढ़िया रचना..अच्छा लगा धन्यवाद
शब्दों से सहवास - वाह योगेन्द्र भाई वाह। मुग्ध हूँ आपको पढ़कर - बस यही कह सकता हूँ। अपनी आदत से मजबूर लीजिए पेश है एक तात्कालिक तुकबंदी आपके तर्ज पर-
लोग यहाँ पर खुशी रहेंगे गर दिल्ली अनुशासित हो
लेकिन ऐसा हो पायेगा, क्या दिखता आभास मियां?
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
शब्दों से सहवास' क्या खूब लक्ष्यभेद किया है.
बहुत सुन्दर
wah maudgil ji wah.
बहुत सुंदर..क्या बात है !!...बधाई
जबरदस्त बात कह जाते हैं सरलत से आप!!
बहुत सुन्दर रचना , आपने बहुत कुछ कह डाला इन पंक्तियों में .
बहुत सुन्दर अल्फाज़, योगेन्द्र जी।
शब्दों के साथ आपका हनी मून यूँ ही चलता रहे, अनंत तक।
योगेंद्र भाई,
शब्दों को भी जापानी तेल का फंडा क्यों नहीं सिखा देते...
जय हिंद...
उत्तम विचार. सुन्दर कविता. यथार्थ परक.
बहुत मजे से और शानदार सी
लिखते हो ग़ज़ल ख़ास मिंयाँ !
bahut hi sundar prastuti.
बहुत गजब की बात कही जी.
रामराम.
योगेंदर जी जबाब नही आप का, आप की गजल आज की सब की दुखती रंग है, बहुत अच्छी लगी,
जबाब नही योगेन्द्र जी ..... ग़ज़ल गजब की hai
Bahut badhiya.
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अंग्रेज़ी का तिलिस्म तोड़ने की माया।
पुरुषों के श्रेष्ठता के 'जींस' से कैसे निपटे नारी?
मौद्गिल जी की जय हो। क्या चुन-चुन के काफ़िये लाये हैं गुरुदेव।
मक्ता तो कसम से जान निकाल रहा है।
भाई जी दीवाने तो आपके पहले से ही थे अब कसम से लट्टू हो गए...मकते ने जान लेली...इब के खा के कमेन्ट करूँ? ग़ज़ब कर नाखा रे मुदगिल गज़ब...
नीरज
बहुत सुंदर लफ़्ज़ों के साथ.... बहुत सुंदर ग़ज़ल.....
भई कमाल है! कितनी आसानी से आप इतना कुछ कह जाते है......लाजवाब गजल्!
तुस्सी ग्रेट हो जी :)
वाह वाह क्या खूब मियां
वाह!! बहुत खूब!!
बहुत बढ़िया रचना।बधाई।
आदरणीय योगेन्द्र जी,
चिट्ठा-चर्चा में श्रि शिवकुमार जी की रपट से यहाँ तक पहुँचा।
क्या कमाल किया है, इस बेहद खूबसूरत गज़ल "शब्दों से सहवास मियाँ" में।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
Ekdam sach...
Bahut bahut sundar...
योगेन्द्र भाई बहुत सुन्दर ग़ज़ल कहते है आप। शुक्रिया।
अंधों की दुनिया में काने ही होते हैं. सटीक.
शब्दों से सहवास का अद्भुत प्रयोग बहुत ही भाया ।
सुंदर गज़ल ।
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