मंदिर हो या मस्ज़िद उस का दोनों में आना-जाना है
जाने कैसी मिट्टी का है जाने कैसा दीवाना है
आदमियत अनदेखी करना उसकी फितरत से बाहर है
इसीलिये घर से बाहर से निपट अकेला बेगाना है
अचरज से सब लोग देख कर इधर-उधर हो जाते हैं
कंक्रीट की दीवारों से अपना ऐसा याराना है
संभव है उस बे-गैरत का उठा हाथ फिर रुक जाये
मक़तल में हर कातिल प्यारे अपना जाना-पहचाना है
अपने पैरों आप कुल्हाड़ी क्यों अचरज़ करते हो यार
मछली कांटे में फंसती है क्योंकि कांटे में दाना है
--योगेन्द्र मौदगिल
20 comments:
मंदिर हो या मस्ज़द उस का दोनों में आना-जाना है
जाने कैसी मिट्टी का है जाने कैसा दीवाना है...
बहुत सुंदर .
maqtal me jane pahachane qatil ka koi jawab nahin.........khoobsoorat aur achhi ghazal k liye badhai,,,,,,, yogendraji aap bahut hi manje hue rachnakar hain, lakh lakh shubhkamnayen
मंदिर हो या मस्ज़द उस का दोनों में आना-जाना है
जाने कैसी मिट्टी का है जाने कैसा दीवाना है
-एक शेर अपने आप में पूरी गज़ल है भाई..गजब!! बहुत बेहतरीन!!
SUBAH SUBAH AAPKE IS MATALE NE TO MIJAAJ DURUST KAR DIYE IS SAUHARD SE.. BAHOT HI KAMAAL KA MATLAA BAN PADAA HAI ... ISME KAMAAL KI BAAT KARI HAI AAPNE ... BAHOT HI ACHHE LAGEE YE GAZAL/....DHERO BADHAAYEEYAAN...
ARSH
मंदिर हो या मस्ज़िद उस का दोनों में आना-जाना है
जाने कैसी मिट्टी का है जाने कैसा दीवाना है
आदमियत अनदेखी करना उसकी फितरत से बाहर है
इसीलिये घर से बाहर से निपट अकेला बेगाना है
bahut umda...shaandaar ghazal.
मंदिर हो या मस्ज़िद उस का दोनों में आना-जाना है
जाने कैसी मिट्टी का है जाने कैसा दीवाना है
jaane kyu ise padhkar vishnu prbhakar ji ka bachpan yaad aa gaya...jab ve jid me masjid ka pani pi kar aate the.....
न होता वो तो न मंदिर होता न मस्जिद होती।
वे भी समझ गए होते अगर मन में जिद होती।
बहुत शानदार रचना.
रामराम.
लाजवाब गुरु जी.............मंदिल मस्जिद वाला शेर........कतल लिखा है
mandir ho ya masjid.................
han dewaana hi to hai, jiski nazar men donon ek hain.
behatareen, shabdon se pare ki rachna. badhai sweekaren, maudgil ji.
आदमियत अनदेखी करना उसकी फितरत से बाहर है
इसीलिये घर से बाहर से निपट अकेला बेगाना है
मंदिर हो या मस्ज़द उस का दोनों में आना-जाना है
जाने कैसी मिट्टी का है जाने कैसा दीवाना है...
bahut umda!
वाह एक से बढ़कर एक शेर ....मज़ा आ गया
बहुत सुंदर ..
मंदिर हो या मस्ज़िद उस का दोनों में आना-जाना है
जाने कैसी मिट्टी का है जाने कैसा दीवाना है
बहुत लाजवाब........
आदमियत को अनदेखी न कर सकने वाले ऐसे ही दीवाने मिसाल बनते हैं. एक सुन्दर रचना पढाने के लिए साधूवाद
"...जाने कैसी मिट्टी का है जाने कैसा दीवाना है"
बहुत सुन्दर, इन दीवानों से ही दुनिया कायम है.
बहुत खूब सर...बहुत खूब
"मक़तल में हर कातिल प्यारे अपना जाना-पहचाना है"
वाह ! क्या बात है...!!!
फिर से एक बेहद अच्छी रचना, सुंदर अभिव्यक्ति।
आप की टिप्पणियां मुझे नया रचने को प्रेरित करती हें इसलिये अपनी अमूल्य टिपपणियों के प्रति आभार स्वीकारें
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