सहमा-सहमा शहर का मंज़र लगता है
चौबारों को गलियों से डर लगता है
दीवानों की बातें भी दीवानी हैं
दीवानों की बातों से डर लगता है
आंसू ही मेरे जीवन की पूंजी हैं
कतरा-कतरा एक समंदर लगता है
रातें-बातें अदा-हवा बहकी-बहकी
सिलवट-सिलवट सबका बिस्तर लगता है
जीने के जोखिम में लाखों लोग मरे
मुर्दारों को जीना बर्बर लगता है
शोख अदाएं देह सजा कर बैठी हैं
नगरी में हर रोज स्वयंवर लगता है
सोच अनोखी-अजब यहां के लोगों की
दिलों-दिमागों तक में अंतर लगता है
--योगेन्द्र मौदगिल
24 comments:
सहमा-सहमा शहर का मंज़र लगता है
चौबारों को गलियों से डर लगता है
क्या बात है योगेन्द्र भाई। मजा आ गया। तुकबंदी की आदत से मजबूर -
कहीं लेखनी रुक न जाये, फिर क्या होगा?
अगर मौदगिल को लिखने से डर लगता है
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
Yogendra Ji,
Bahut khoobsurat... Shabd nahi hai tarref karne ko. BADHAAEE !!
शोख अदाएं देह सजा कर बैठी हैं
नगरी में हर रोज स्वयंवर लगता है
MAUDGIL SHIB... FIR SE MAARA KARAARA AAPNE IS DHADHAKTI GARMEE ME... BAHOT HI KHUSURAT GAZAL KAHI AAPNE.. DHERO BADHAAYEE SAHIB...
ARSH
वाह योगेन्द्र जी गजब का लिखा है हर शेर। बेहतरीन ग़ज़ल।
सोच अनोखी-अजब यहां के लोगों की
दिलों-दिमागों तक में अंतर लगता है
सच क्या कहने।
मौदगिल जी, माफी चाहूंगा, पर मुझे लग रहा है कि पहली लाइन का वज्न कुछ गडबड कर रहा है।
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सावधान हो जाइये
कार्ल फ्रेडरिक गॉस
अब कहने को बाकी क्या रह गया ! बहुत बढ़िया.
ओह! यह तो ऊबड़ खाबड़ मामला लगता है।
जीने के जोखिम में लाखों लोग मरे
मुर्दारों को जीना बर्बर लगता है
vaah ..... aap jaise kavi hi itni bebaki se aaj ki zindgi ko byan kar sakate hae .
घणी सुथरी रचना सै भाई. पर मन्नै एक बात बताओ कि बिना बूझे ताछे १५ दिन घर छोड के कित गये थे?
मैं तो अखबार मे गुमशुदा की तलाश मे विज्ञापन देण आला था.
अटल जी स्टाईल मे : ये अच्छी बात नही सै.:)
रामराम.
बहुत ग़ज़ब ग़ज़ल है
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चाँद, बादल और शाम । गुलाबी कोंपलें
जीने के जोखिम में लाखों लोग मरे
मुर्दारों को जीना बर्बर लगता है
bahut khub...
आंसू ही मेरे जीवन की पूंजी हैं
कतरा-कतरा एक समंदर लगता है.....
बहुत खूब , उम्दा लाइनें .
जीने के जोखिम में लाखों लोग मरे
मुर्दारों को जीना बर्बर लगता है
बहुत खूब......
मौदगिल जी, के बात ईबकी बार तैं बडे घणे दिनां मैं दिख्याई पडे..अर आते ही दुकान का हुलिया बदल दिया.
आंसू ही मेरे जीवन की पूंजी हैं
कतरा-कतरा एक समंदर लगता है
wah maudgilji, gazal ke khubsurat guldaste men sabhi phool ek se badh kar ek.
badhai sweekaren.
सहमा-सहमा शहर का मंज़र लगता है
चौबारों को गलियों से डर लगता है
bahut khuub likha hai!
har baar ki tarah yah gazal bhi pasand aayi.
[[meri nayi post par aayi aap ki tippani mein
'--gulabi kopalen--chand aur badal'--vinay ji ke blog ke link aaye hain!
samjh nahin aaya..
ki aap ke profile id se ,Vinay ji ke blog ke link kaise us tippani mein aaye! :)]
कहाँ गुम हो जाते हैं कविवर एकदम से?
ब्लौग का नया लुक सुंदर है..
और ग़ज़ल हमेशा की तरह लाजवाब
"सिलवट-सिलवट सबका बिस्तर लगता है"
पर खूब सारी वाह-वाह !
सहमा-सहमा शहर का मंज़र लगता है
चौबारों को गलियों से डर लगता है
दीवानों की बातें भी दीवानी हैं
दीवानों की बातों से डर लगता है
क्या खूब बात कही है मौदगिल साहब ...बहुत ही ज़बरदस्त रचना है !!!
रातें-बातें अदा-हवा बहकी-बहकी
सिलवट-सिलवट सबका बिस्तर लगता है
bahut achhe ..
बहुत खूब!
शोख अदाएं देह सजा कर बैठी हैं
नगरी में हर रोज स्वयंवर लगता है
क्या बात कही गुरु!
बहुत सुन्दर. वाह.
Bhaav aapki kuchh pehli rachnaaon se milte julte lage ... aur abhivyakti mein bhi khaas nayapan na dikha.
:-(
हकीकत और यथार्थ बयान है इस ग़ज़ल में.............आपने अपने अंदाज़ से हट कर लिखा है.बहुत sanjeeda ग़ज़ल है
सहमा-सहमा शहर का मंज़र लगता है
चौबारों को गलियों से डर लगता है
मौदगिल साहब जी बहुत खूब क्या बात है दिल खुश कर देते हो लेकिन काफी दिनों तक इंतजार भी कराते हो ऐसा मत किया करो
एक बात मेरी समझ में नहीं आई जरा स्पस्ट किजिएगा कि ये आपने पहला शेर क्यों लिख दिया अरे भाई आजकल चुनावों का समय है तो शहर कहां से ठहर गया मैं हास्य कर रहा हूं मेरी बात का बुरा मत मानना
यह चुटकियों भरी ग़ज़ल ख़ूब रही
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चाँद, बादल और शाम । गुलाबी कोंपलें
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