कल तक देसी गद्दारों में .....

जिनके पुरखे शामिल थे कल तक देसी गद्दारों में.
उनके वंशज़ मांग रहे हैं सत्ता को दस्तारों में.

गांधी बाबा ने दे दी थी घुट्टी हमें समर्पण की,
इसीलिये तो घूम रहे डाकू संसद गलियारों में.

सृष्टी के आरंभ से हव्वा मुफलिस पर हंटर बरसे,
ठठा रहे हैं आदम अफसर तो नौबत नक्कारों में.

आम आदमी तो गुम है रोटी बेटी की चिन्ता में,
बड़ा आदमी सोच रहा है क्या होगा सरकारों में.

जिन पीरोमुरशिद की यारों हमको आज जरूरत है,
वो पीरोमुरशिद तो कब के सोये पड़े मज़ारों में.

एक परिन्दा बोला इक दिन आसमान को छू लूंगा,
उस दिन से हड़कम्प मचा है जंगल के ऐय्यारों में.

लूटजनी के आरोपों की चिन्ता यारों कौन करे,
नीले गीदड़ शेर बने अपने अपने दरबारों में.
--योगेन्द्र मौदगिल

26 comments:

श्यामल सुमन said...

आम आदमी तो गुम है रोटी बेटी की चिन्ता में।
बड़ा आदमी सोच रहा है क्या होगा सरकारों में।।

योगेन्द्र भाई। मन को छूने वाली पँक्तियाँ। वाह। वाह।। चलिए मैं भी कुछ कोशिश करूँ इसी खानदान की पँक्तियों की दिशा में-

जीने का सामान नहीं पर जीने को मजबूर हुए।
पास नहीं जब पैसा फिर तो क्या जाऊँ बाजारों में।।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsoman@gmail.com

इरशाद अली said...

बहुत सही बात कही है सून्दर प्रयास।

P.N. Subramanian said...

वह भाई, क्या कहने. बहुत ही सुन्दर. आभार.

Dr. Amar Jyoti said...

कठोर सत्य की सफ़ल अभिव्यक्ति।
बधाई।

दिनेशराय द्विवेदी said...

बात अच्छी है, जनता ही रास्ता दिखाएगी।

Ashok Pandey said...

बहुत खूब, सुंदर रचना। अब के डाकू तो संसद में ही रहते हैं, बीहड़ों में अब छोटे मोटे चोर उचक्‍के रहते हैं।

संगीता पुरी said...

बहुत बढिया लिखा आपने ... बधाई।

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

आपकी लेखनी से ईर्ष्या होने लगती है.

"अर्श" said...

EK PARINDA BOLA EK DIN....
KYA KHUB KAHI AAPNE MAUDAGIL SAHIB YE SHE'R PARCHAM HAMESHAA KI TARAH LAHRA DIYA AAPNE... FIR SE KAS KE MAARA AAPNE SABKO ... JOR KA JHTAKA DIRE SE... BAHOT BADHIYA....DHERO BADHAAEE ..

ARSH

सुशील छौक्कर said...

आम आदमी तो गुम है रोटी बेटी की चिंता में,
बड़ा आदमी सोच रहा है क्या होगा सरकारों में.

सच कह दिया।

ताऊ रामपुरिया said...

बहुत ही सुंदर और सटीक बात कही आपने.

रामराम.

मोहन वशिष्‍ठ said...

लटइमार झांकी जमा दी मौदगिल साहब जी

रविकांत पाण्डेय said...

आम आदमी तो गुम है रोटी बेटी की चिन्ता में
बड़ा आदमी सोच रहा है क्या होगा सरकारों में

जन-साधारण से जुड़ी हुई गजल। मुंह से बरबस वाह-वाह निकल रहा है।

admin said...

समकालीन समाज को चित्रित करती सार्थक गजल।

-----------
तस्‍लीम
साइंस ब्‍लॉगर्स असोसिएशन

Yogesh Verma Swapn said...

bahut sunder kataksh, hamesha ki tarah behtareen rachnaon ki kadi mein ek ka izafa.

पंकज सुबीर said...

अभी अभी एक छात्र मेरी मनपंसद डेरी मिल्‍क फ्रूट एंड नट चाकलेट देकर गया है । उसे खा रहा हूं और साथ में आपकी ग़ज़ल का आनंद ले रहा हूं । जिस प्रकार उस चाकलेट में कहीं काजू कहीं किशमिश कही बादाम अचानक निकल रही है उसी प्रकार आपकी इस ग़ज़ल में भी शेर मिल रहे हैं । बधाई

अनिल कान्त said...

बहुत ही सटीक लिखा है .....बेहतरीन

मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

शोभा said...

एक परिन्दा बोला इक दिन आसमान को छू लूंगा,
उस दिन से हड़कम्प मचा है जंगल के ऐय्यारों में.

लूटजनी के आरोपों की चिन्ता यारों कौन करे,
नीले गीदड़ शेर बने अपने अपने दरबारों में.
आनन्द आगया। आभार।

दिगम्बर नासवा said...

एक परिन्दा बोला इक दिन आसमान को छू लूंगा,
उस दिन से हड़कम्प मचा है जंगल के ऐय्यारों में.

राजनीति पर सटीक प्रहार...दिल को छु लेने वाली रचना
आपका अंदाज़ निराला हे, धार भी निराली, मज़ा आ गया

राज भाटिय़ा said...

एक परिन्दा बोला इक दिन आसमान को छू लूंगा,
उस दिन से हड़कम्प मचा है जंगल के ऐय्यारों में.

लूटजनी के आरोपों की चिन्ता यारों कौन करे,
नीले गीदड़ शेर बने अपने अपने दरबारों में.

लेकिन इन हरामियो का इलाज क्या है?
आप ने बहुत ही सुंदर लिखा, एक सच को कवित का रुप दे दिया.
धन्यवाद

आलोक सिंह said...

गांधी बाबा ने दे दी थी घुट्टी हमें समर्पण की,
इसीलिये तो घूम रहे डाकू संसद गलियारों में.
बहुत खूब वास्तविकता को व्यंग का जमा पहना दिया है आपने .

रंजना said...

gandhi baba ne de di thi ghutti hame samarpan ki.....

kitna sahi !!!

Waah! Waah ! aur Waah !! aur kuchh nahi kahne ko...

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" said...
This comment has been removed by the author.
Pt. D.K. Sharma "Vatsa" said...

अगर वाह्! से बढकर भी तारीफ के लिए कोई शब्द हों तो इस गजल के लिए वही कहना चाहूंगा.....
मुफलिस पर हंटर बरसे भाई मुफलिस जी,सुबह से ही आज हमारे साथ थे,लेकिन उन्होने तो ऎसी किसी घटना का जिक्र नहीं किया..))

(9316815864-9877346031)अगर हो स‌के तो अपना नम्बर दीजिए....वैसे जब भी पानीपत आना होगा तो आशा करता हूं कि आपसे मुलाकात का अवसर जरूर प्राप्त होगा.

mehek said...

सृष्टी के आरंभ से हव्वा मुफलिस पर हंटर बरसे,
ठठा रहे हैं आदम अफसर तो नौबत नक्कारों में.

आम आदमी तो गुम है रोटी बेटी की चिन्ता में,
बड़ा आदमी सोच रहा है क्या होगा सरकारों में.
waah behtarin lajawab gazal.

राजीव तनेजा said...

ये कलयुग है....

इस कलयुग की....

यही है...यही है

रस्म औ रीत