कहीं-कहीं माकूल हवा.
बाक़ी नामाकूल हवा.
देखा-देखी बिगड़ गयी,
भूली अदब-उसूल हवा.
बूढ़े सर को लगती है,
केवल ऊलजलूल हवा.
महलों-महलों रसभीनी,
झुग्गी-झुग्गी शूल हवा.
भीगी धरती बांच रही,
बूंदें, बिजली, धूल, हवा.
उसने आंचल ऒढ़ लिया...
बन गई एप्रिल-फूल हवा.
दरिया ने अंगड़ाई ली,
गयी शरम को भूल हवा.
मन हो तो दे देती है,
तूफ़ानों को तूल हवा.
कूल-किनारे तोड़ेगी,
मस्ती में मशगूल हवा.
उजड़ गये वो सोच रहे,
रब्बा, किसकी भूल हवा..?
देख 'मौदगिल' जांच रही,
कश्ती के मस्तूल हवा.
--योगेन्द्र मौदगिल
24 comments:
महलो महलो रस भीगी
झुग्गी झुग्गी शूल हवा
बहुत सटिक रचना.
रामराम.
पहला शेर ही बहुत जानदार है।
" ये निगोडी हवा भी दुनिया के रंग में रंग के बिगड़ गयी लगता है , भेद भाव करने लगी.....बेहद सुंदर और सार्थक रचना..."
Regards
सुबह सुबह आपकी ग़ज़ल पढ़ के आबिदा परवीन जी की गई ग़ज़ल हम से है तेरा दर्द का नाता ... याद आगई...
ढेरो बधाई आपको
अर्श
हवा के सुंदर भाव लिए ही यह भी दिल में उतर गई ..अच्छा लिखा आपने
पैनी,महीन और बढ़िया गज़ल...कम अशआर,ज्यादा बात।
हँसते-हँसाते नाराज़ होने की अदा तो कोई आपसे सीखे
---आपका हार्दिक स्वागत है
गुलाबी कोंपलें
हवा के विविध रूपों को दिखाती रचना.
(gandhivichar.blogspot.com)
बहुत बढ़िया गजल। बधाई
बहुत दिनों बाद ब्लॉग पर आयी । हवा बहुत सुहानी लगी ।
चाहे
महलोंमहलों रसभीनी
झुग्गी झुग्गी शूल हवा ही क्यूं न हो ।
हवा का झोंका भी पसंद आया कविवर !
मुझे आपकी इस तरह की छोटे-छोटे वाक्यों वाली रचनायें बहुत अच्छी लगती हैं. बहुत सुन्दर.
पूरी की पूरी कविता, सत्य, यथार्थ, गहरे मतलब से भरी हुई है
मोदगिल साहब..............आपका अंदाज़ निराला है
वाह जी वाह मेरे दिल ने कहा कि किसी एक शेर को उठाकर तारीफ करना पूरी कविता की पूरी रचना की तौहीन होगी जबकि पूरी की पूरी रचना ही काबिल-ए-तारीफ है बधाई हो
आखिरी के शेर खास है
काश मेरे पास भी इतना शब्द भण्डार होता !
कहीं-कहीं माकूल हवा..... बहुत सुंदर लिखा आप ने आज हवा के ऊपर ओर आज के हालात पर... सच मै बडी नामाकूल हवा चल रही है आज पुरे देश मे.
धन्यवाद
dekha-dekhi bigaR gayee
bhooli adab-usool hava
puree ghazal aapke apne rang me hai, jo aapka niji rang hai jise mai andaze-byaN kah sakta hoon aur ye khoob hai daad ke kabil hai.
अब "वाह-वाह" कहने के नये ढ़ब कहाँ से ईज़ाद करें योगेन्द्र जी....?उजड़ गये वो सोच रहे/रब्बा,किसकी भूल हवा...हाययययय
बहुत ही अच्छी कविता--
'महलों महलो भीनी हवा----'
बहुत खूब लिखा है!
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गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं
'महलों महलों रसभीनी…'
बहुत सुन्दर! बहुत ख़ूब!
बेहतरीन तीखा अंदाज़ ...मज़ा आगया ! आपके इस ब्लाग की हर रचना संग्रहणीय है मौदगिल भाई !
आपका नया फोटो देख कर मज़ा नही आया हम तो आपके हँसते चेहरे के फैन हैं !
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