मित्रों,
आप सभी को यथायोग्य.
कुछ कविसम्मेलनीय यात्राऒं एवं अपने पानीपत सांस्कृतिक मंच के वार्षिक कवि-सम्मेलन की आयोजनीय व्यस्तताऒं के चलते १०-१२ दिन की अनुपस्थिति को उदारता पूर्वक क्षमा करें.
आज से रूटीन में आ गया हूं....
एक गज़ल पेश कर रहा हूं कि......
बढ़ रही महंगाई हम को आजमाने के लिये.
और हम ज़िन्दा हैं केवल, तिलमिलाने के लिये.
बेकसी बढ़ती रही ग़र, दाने-दाने के लिये.
तन पड़ेगा झोंकना, चूल्हा जलाने के लिये.
प्याज़ ने आंसू निकाले, देख बेसन ने कहा,
चाहिये, अब तो कलेजा हम को खाने के लिये.
कितनी ऊंची कूद मारी, इस उरद की दाल ने,
लोन ही लेना पड़ेगा दाल खाने के लिये.
सोचता हूं, वो ज़माना खूब था, हम पढ़ लिये,
दिन में तारे दिख गये, बच्चे पढ़ाने के लिये.
नौकरी जब ना मिली तो उसने किडनी बेच दी,
दो निवाले भूखे बच्चों को खिलाने के लिये.
भूख ने तड़पा दिया तो बेईमानी सीख ली,
शुक्रिया रब्बा... तिरा ! ये दिन दिखाने के लिये.
इक चटाई, एक धोती, एक छप्पर, इक घड़ा,
उम्र सारी कट गयी इन को बचाने के लिये.
बन गया मैं तो मिनिस्टर भोली जनता शुक्रिया,
मिल गया लाइसैंस अब तो देश खाने के लिये.
चंद वादे, चंद नारे, चंद चमचे, 'मौदगिल',
पर्याप्त हैं, इस देश की संसद में जाने के लिये.
--योगेन्द्र मौदगिल
33 comments:
बड़े दिन बाद दर्शन दिये।
अच्छी रचना!
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चाँद, बादल और शाम
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सुंदर रचना।
मौदगिल साहब नमस्कार,
इतने दिनों आपकी अनुपस्थिति बहोत खली ,खैर देर आए दुरुस्त आए बेहतरीन रचना के साथ बहोत खूब रचना है ढेरो बधाई और साधुवाद ....
अर्श
इक चटाई एक धोती एक छप्पर इक घडा
उम्र सारी कट गयी इनको बचाने के लिए
भाई जी वाह...जिस पर माँ सरस्वती प्रसन्न होती है वो ही ऐसा शेर लिख सकता है....सच तबियत बाग़ बाग़ हो गयी...क्या ग़ज़ल लिखी है है...कमाल कर डाला है आपने...हमने इतने दिनों की जुदाई ऐसी शानदार ग़ज़ल से भुला दी...जिंदाबाद भाई जी जन्दाबाद...
नीरज
चोर डाकू जितने थे सब बन गए मंत्री वजीर,
रह गए हम आतंकियों की गोली खाने के लिए।
आपने मौदगिल बहुत अच्छा लिखा सच्चा लिखा
शुक्रिया यह कविता हमको पढ़वाने के लिए।
िजंदगी और समाज के सच को बडी मािमॆकता से अभिव्यक्त किया है । आम आदमी की पीडा को शब्दबद्ध करने के िलए साधुवाद । मैने अपने ब्लाग पर एक लेख िलखा है-आत्मिवश्वास के सहारे जीतें िजंदगी की जंग-समय हो तो पढें और अपनी राय भी दें-
http://www.ashokvichar.blogspot.com
बडी धमाकेदार वापसी है।शानदार रचना।
बहुत बढिया व सामयिक गजल है।
इक चटाई एक धोती एक छप्पर इक घडा
उम्र सारी कट गयी इनको बचाने के लिए
भाई मोदगिल जी आज तो कती खूण्टा ही गाड राख्या सै इस रचना म्ह तो ! बहुत बधाई !
राम राम !
चंद वादे,चंद नारे, चंद चमचे...... वाह क्या बात है, आज तो कमाल कर दिया आप ने आप की गेरहाजरी का गिला भी खतम हो गया आप के शेर पढ कर.
धन्यवाद
अच्छी ग़ज़ल
वास्तविकता को साफ़ साफ़ दिखला रही है आप की रचना.
यही स्थिति है आज... उम्दा ग़ज़ल.हर शेर एक कहानी है.
बधाई
आज कल की मँहगाई को बखूबी उभारा है आपने इस ग़ज़ल में...
नमस्कार योगेन्द्र जी,
बहुत ही अच्छा व्यंग कसा है आपने अपनी ग़ज़ल में.
बेहतरीन प्रस्तुति
योगेन्द्र जी
बहुत समय से ग़ज़ल की दुनिया मैं कोई धमाका नही हुवा था. अब समझ आया क्यूँ नही हुवा था
सब को आइना दिखलाने का शुक्रिया
बहुत ही उम्दा, लाजवाब, अर्थपूर्ण ग़ज़ल
सुंदर लाजवाब रचना,बेहतरीन प्रस्तुति
Regards
बढ़ रही महंगाई हम को आजमाने के लिये.
और हम ज़िन्दा हैं केवल, तिलमिलाने के लिये.
अ हा ! योगी बड्डे, ग़ज़ब ढ़ा दिया आपने तो आज, यार. क्या कहना !
दिन में तारे दिख गये, बच्चे पढ़ाने के लिये.
मालिक भली करे आपकी, बहुत बहुत बधाई.
वाह्! बहुत ही उम्दा गजल
आपने तो चन्द लाईनों में ही सारे समाज का खाका खींच डाला.
पुन: बधाई स्वीकार करें
दुश्यंत कुमार की गज़लों की याद दिला दी . बेहतरीन गज़ल है मौद्गिल साहब !
bahut sashakt rachna, samaaj ko aaina dikha diya aapne.
नौकरी जब ना मिली तो उसने किडनी बेच दी,
दो निवाले भूखे बच्चों को खिलाने के लिये.
Bahut khub likha ha aapne bahut hi sundar anekon shubhkamnayen...
Tikhi mirch ki tarah.Bahut khub.
सही बात है... हम तिलमिलाने के लिए ही जीवित हैं, और चीजों पर तो हमारा वश है नहीं। इस सुंदर गजल में आज के जीवन के दर्द को आपने बखूबी बयां किया है। बहुत अच्छा लगा पढना।
'यार चक्कलस ' इनमे स्थित टेम्पलेट्स से भी अच्छा एक टेम्पलेट 'सेलर-हीट डार्क ' [cellar-heat dark] //anyonasti-chittha.blogspot.com चिट्ठा पर देखें | और गंभीर लेखों पर अपनी सम्पूर्ण विस्तृत प्रतिक्रिया दें ,केवल अच्छा है या लेख .बड़ा सारगर्भित ही कह देने भर सेकाम नही चलेगा यातो पक्ष में आकर या विरोध में जा कर अथवा इसके अतिरिक्त कोई और -अन्य राह या सिद्धांत भी है है तो उसे सार्थक चर्चा -बहस के लिए प्रस्तुत करे तभी हमारा आप का लिखना सार्थक होगा वरना एक दूसरे के अहम् को सहलाना मात्र है | मैंने इसी सिद्धांत को अपनाते हुए अपनी पोस्टों पर लिखना कम कर के दूसरो के विचारणीय पोस्टों पर टिप्पणी देना आरम्भ करदिया है ;समझ लीजिये वही मुझे लेखन की संतुष्टि दे देता है | आप से भी यही आपेक्षा करता हूँ | मैंने ::बतकही :: का मूल मंत्र भी यही दिया " मेरी : तेरी : उसकी - बात " यहाँ उसी की बात का यही अर्थ है
नौकरी जब ना मिली तो उसने किडनी बेच दी,
दो निवाले भूखे बच्चों को खिलाने के लिये.
बहुत खूब ...बहुत अच्छा लिखते हैं आप
वाकई जिंदा भी है और तिलमिला भी रहे हैं /तन जन झोंकना पड़ेगा चूल्हा जलने के लिए (औरत भी तो मजबूर है तंदूर में जल जाने के लिए ) उर्द की दाल को तो छलांग मारना ही चाहिए बडी पौष्टिक और पचने में भरी होते है (उर्दान खुर्दान ,या खाए घोड़ा या खाए जवान ) वादे नारे और चमचेसही है जरूरी है देश चलने /
क्या कहूँ........ पंक्तियाँ सीधे मन में उतर गयीं. बहुत बहुत सुंदर सार्थक यथार्थ का दिग्दर्शन करती रचना........WAAH !
क्या बात कही है कविवर आपने !! आखिरी लाइन बहुत पसंद आयी !!
भाई मौदगिल जी ,
इतने दिनों कवि सम्मलेन के सञ्चालन में रहे व्यस्त या फिर किचेन और घर सञ्चालन में, जो आटे-दाल का भाव पता होते ही कविताओं में उसे पिरो दिया .
बुरा न मानेगे , इसी अभिलाषा से लिखने कि हिम्मत जुटा पा रहा हूँ.............
ग़ज़ल की दर्दे-दिली ने दिलो दिमाग यूँ मोड़ा
किचेन से लेकर बच्चों तक को भी न छोड़ा
सभी दर्दों की खिचड़ी कुछ यूँ ही पकी है
टिप्पणियों की बघार ने है हमें आपसे जोड़ा
सुंदर, सटीक , सामयिक रचना प्रस्तुति के लिए हार्दिक आभार.
चन्द्र मोहन गुप्त
स्वागतम है सर....और आते ही छा गये हैं धूम से
अनूठी गज़ल हमेशा की तरह
जी बिल्कुल सही फरमाया आपने संसद में पहुचने का फार्मूला !
भूख ने तड़पा दिया तो बेईमानी सीख ली,
शुक्रिया रब्बा... तिरा ! ये दिन दिखाने के लिये.
... प्रसंशनीय व प्रभावशाली गजल है।
बहुत सुंदर ! नव वर्ष की शुभकामनायें स्वीकार करें !
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