मां-बाप तो जीते रहे बच्चों के वास्ते.
बच्चों ने ढूंढे आश्रम दोनों के वास्ते.
दरिया किनारे दश्त के पेड़ों को छांट कर,
हम काट लाये टहनियां चूल्हों के वास्ते.
कुछ लोग थे जीते रहे रिश्तों को तोड़ कर,
कुछ लोग थे कि मर-मिटे धागों के वास्ते.
दीवार दर दीवार ही करते रहे खड़ी,
आंगन बचा ना पाये हम बच्चों के वास्ते.
होता जो समझदार तो कुछ और ही करता,
पागल था जो कि मर गया अपनों के वास्ते.
कम्बख्त आदमी की ये फितरत अज़ीब है,
चुनता ही रहा किरचियां जख्मों के वास्ते.
हमले रहा करता न जाने किस ख्याल से,
थोड़ी ज़मीन खूब थी कब्रों के वास्ते.
शाबासियां उनको मिलीं क्यों 'मौदगिल' कहो,
पत्थर उठा के लाये जो शीशों के वास्ते.
--योगेन्द्र मौदगिल
32 comments:
दीवार दर दीवार ही करते रहे खड़ी,
आंगन बचा ना पाये हम बच्चों के वास्ते.
क्या बात है योगेन्द्र भाई? बहुत अच्छा। कहते हैं कि-
दिल को बाँट चुके हो जमीं तो रहने दो।
मुहब्बत की निशानी कहीं तो रहने दो।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
बहुत ख़ूब! बहुत ही सुन्दर।
जीते रहे बुजुर्ग तो बच्चों के वास्ते,
बच्चों ने ढूंढे आश्रम बूढों के वास्ते ....
" बहुत भावुक कर गयी ये पंक्तियाँ, कितना कड़वा सच है जिन्दगी का.."
Regards
कुछ लोग थे जीते रहे रिशतों को तोड कर
कुछ लोग थे कि मर मिटे-धागों के वास्ते
अच्छा है..बधाई
जीते रहे बुजुर्ग तो...
कुछ लोग थे जीते रहे ...
कितनी सच्ची बात कही है, आइना दिखाने का शुक्रिया!
जीवन कीई वास्तविक सच्चाई से रूबरू करवाती रचना ! बहुत शुभकामनाएं !
ग़ज़ल की मिश्रा ऊला ही पढ़ा था सानी पे अभी आँख भी नही गया था
उसे पढ़ते ही में उठ के बैठ गया ,अरे ये क्या लिख डाला आपने ... बस ये सोंच रहा थे के आगे क्या मिलता है पढ़ने को बस पढ़ता गया और ग़ज़ल की मक्ता पे आते ही लगा ये क्यों ख़तम कर दी इस तरह आपने ,,
बहोत खुल के खूब लिखा है आपने एक बार फ़िर बेहतरीन ग़ज़ल के सहारे मारा आपने बहोत उम्दा ..ढेरो बधाई आपको..
बहुत समसमायिक रचना लिखी है! वाह!
बहुत शानदार रचना ! बधाई !
बेहद सटीक ! धन्यवाद !
'कुछ लोग थे जीते रहे रिश्तों को तोड़ कर,
कुछ लोग थे कि मर-मिटे धागों के वास्ते'
सच्ची बयान कर दी आपने... बहुत खूब लिखे हैं.
दीवार दर दीवार ही करते रहे खड़ी,
आंगन बचा ना पाये हम बच्चों के वास्ते.
क्या बात है योगेन्दर जी, बहुत ही सच्ची बाते लिखी है आप ने इन शेरो मै.
धन्यवाद
कडवा है, लेकिन यथार्थ है. आज का परम सत्य है, बडी खूबसूरती से कविता में संजोकर प्रस्तुत किया है.
आह!बड़ी गहरी चोट की आपने!बेहद सटीक।
अब एक नई "वाह-वाह" कहाँ से ढ़ूढ़ कर लाये हम योगेन्द्र जी?
चुप हो फिर से गज़ल का मजा उठा लेते हैं
भाई जी आप की ये ग़ज़ल बेजोड़ है...हर शेर लाजवाब है किस की तारीफ करूँ...ज़िन्दगी की तल्ख़ सच्चाईयों को क्या खूबसूरती से बयां किया है आपने...वाह वा...बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत....खूब.
नीरज
भावपूर्ण अभिव्यक्ति !
दीवार दर दीवार ही करते रहे खड़ी,
आंगन बचा ना पाये हम बच्चों के वास्ते.
... बहुत ही सुन्दर व प्रभावशाली अभिव्यक्ति है, एक लम्बे समय के बाद इतनी असरदार गजल/रचना पढने मिली।
योगेन्द्र जी, ढेर सारी शुभकामनाएँ।
बहुत खूब भाई योगेन्द्र मौदगिल जी..आदमी की पूरी फितरत ही गजल में समेट दी है।
bahut khoob likha hai aapne...
Har she'r lajawaab hai...
Meray blog par padharne ke liye bhi shukriya...
Pl visit for my ghazals in my voice -
http://binnewslive.com
बहुत अच्छा भाई योगेन्द्र जी
छाँव में बुजुर्गों की हम भीगते रहें
तुमने ज़मीं सजा दी है अब्रों के वास्ते
क्या ग़ज़ल सुनाई आपने। हर शेर लाजवाब लगा ! बहुत खूब
bahut khuub..
बहुत ही सार्थक व सामयिक रचना है।भुक्त्भोगियो के मन मे एक टीस -सी उभार देती है आपकी यह रचना।बहुत बढिया लिखी है।बधाई स्वीकारें।
दीवार दर दीवार ही करते रहे खड़ी,
आंगन बचा ना पाये हम बच्चों के वास्ते.
आप को सादर आमंत्रण है "बतकही" पर आने का | वहांकी कीगई धृष्टता के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ उसकी बात वही अंत में की गयी है
सच में..हर शेर लाजवाब...तीसरा शेर छू गया मुझे...!
अभी तक यही सोच रहा हू कि अपने मन के भावो को कैसे अभिव्यक्त करु.अति सुन्दर.
खूब लिखा है आपने. बधाई.
This one is awesome, Sir!! Too good! I liked each one, especially "dariyaa kinaarey dasht ..'. and "kambakht aadmi ki firtat ajeeb hai...".
God bless
RC
आपने हलचल मचा दी हमारे अंतर्मन में. सब कुछ किस के वास्ते? दीर्घा नीश्वास के साथ आभार.
क्या खुब कही मौदगील जी आपने !! खुश हो गये आपको पढकर !!आप भीड मे भी अलग दिखते है ये अच्छी बात है !!
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