निगाहें.....

कभी बलियों उछलती हैं निगाहें.
कभी घण्टों फिसलती हैं निगाहें.

मदरसा, दैर हो, थाना या कोठा,
कईं कपड़े बदलती हैं निगाहें.

अजब उद्योगपतियों का शहर है,
यहां सिक्कों में ढलती हैं निगाहें.

चलो, कुछ देर आंखें मूंद लें अब,
यहां मन को मसलती हैं निगाहें.

वहीं तक का सफर है ठीक, बंधु,
जहां तक साथ चलती हैं निगाहें.

नज़ारे दूर खो जाएं कहीं तो,
यक़ीनन हाथ मलती हैं निगाहें.

हटो, दीवार के उस पार बैठें,
यहां तो मूंग दलती हैं निगाहें.

मोहल्ला ये शरीफों का है साहेब,
यहां गिर कर संभलती हैं निगाहें.
--योगेन्द्र मौदगिल

22 comments:

Anil Pusadkar said...

मोहल्ला ये शरीफ़ो का है साहेब, यहा गिर कर सम्भलती है निगाहे, बहुत खूब

फ़िरदौस ख़ान said...

चलो, कुछ देर आंखें मूंद लें अब,
यहां मन को मसलती हैं निगाहें.

वहीं तक का सफर है ठीक, बंधु,
जहां तक साथ चलती हैं निगाहें.

नज़ारे दूर खो जाएं कहीं तो,
यक़ीनन हाथ मलती हैं निगाहें.

हटो, दीवार के उस पार बैठें,
यहां तो मूंग दलती हैं निगाहें.


शानदार...हरियाणा याद आ गया...

seema gupta said...

"नज़ारे दूर खो जाएं कहीं तो,
यक़ीनन हाथ मलती हैं निगाहें.
"bhut sunder sher"

Regards

जितेन्द़ भगत said...

वैसे सारे शेर खास थे, पर इसमें भी कुछ बेपर्दा हुआ-जमाने के कुछ रंग दि‍खाते हुए-
मदरसा, दैर हो, थाना या कोठा,
कईं कपड़े बदलती हैं निगाहें.

नीरज गोस्वामी said...

हटो, दीवार के उस पार बैठें,
यहां तो मूंग दलती हैं निगाहें.
वाह...मुदगिल भाई...वाह...मूंग दलना मुहावरा मैंने पहली बार शायरी में पढ़ा...ये प्रयोग बहुत पसंद आया...और आप वाकई नए शब्दों से कमाल का खेल खेलते हैं शायरी में...ये बात ही आप को भीड़ से जुदा रखती है...एक बार फ़िर दिली दाद कबूल फरमाएं...
नीरज

ताऊ रामपुरिया said...

मोहल्ला ये शरीफों का है साहेब,
यहां गिर कर संभलती हैं निगाहें.

बहुत सुंदर ! शुभकामनाएं !

भूतनाथ said...

चलो, कुछ देर आंखें मूंद लें अब,
यहां मन को मसलती हैं निगाहें.

खूब बहुत खूब ! आनंद आ गया !

art said...

बहुत सुंदर

दीपक "तिवारी साहब" said...

हटो, दीवार के उस पार बैठें,
यहां तो मूंग दलती हैं निगाहें.

बहुत सही शेर कहा आपने ! पहले छाती पर मूंग दले जाते थे ,
अब निगाहों से भी दले जाने लगे ! इसीलिए तिवारी साहब की
आंखों में किरकिरी सी लगती है ! हमारा सलाम लीजिये कविवर !

Ashok Pandey said...

''हटो, दीवार के उस पार बैठें,
यहां तो मूंग दलती हैं निगाहें.

मोहल्ला ये शरीफों का है साहेब,
यहां गिर कर संभलती हैं निगाहें.''

वाह बहुत खूब..हमेशा की तरह शानदार रचना..बधाई।

Udan Tashtari said...

अजब उद्योगपतियों का शहर है,
यहां सिक्कों में ढलती हैं निगाहें.


--वाह बहुत खूब!!

Abhishek Ojha said...

"यहा गिर कर सम्भलती है निगाहे" निगाहें-निगाहों में बहुत कुछ कह गए आप... बहुत खूब !

विक्रांत बेशर्मा said...

हटो, दीवार के उस पार बैठें,
यहां तो मूंग दलती हैं निगाहें.

मोहल्ला ये शरीफों का है साहेब,
यहां गिर कर संभलती हैं निगाहें.


क्या कहने मौदगिल साहब ..बहुत इ उम्दा है !!!!!!!!

राज भाटिय़ा said...

मोहल्ला ये शरीफों का है साहेब,
यहां गिर कर संभलती हैं निगाहें.....
योगेन्दर जी हमेशा की तरह से सुन्दर ओर भाव भरी हे आप की कविता,
धन्यवाद

Smart Indian said...

बहुत सुंदर! धन्यवाद!

shelley said...

मदरसा, दैर हो, थाना या कोठा,
कईं कपड़े बदलती हैं निगाहें.

अजब उद्योगपतियों का शहर है,
यहां सिक्कों में ढलती हैं निगाहें.

चलो, कुछ देर आंखें मूंद लें अब,
यहां मन को मसलती हैं निगाहें.

bahut khub . nigahen banaye rakhen

admin said...

कभी बलियों उछलती हैं निगाहें.
कभी घण्टों फिसलती हैं निगाहें.

मदरसा, दैर हो, थाना या कोठा,
कईं कपड़े बदलती हैं निगाहें.


बहुत प्यारे शेर हैं। बधाई स्वीकारें।

सचिन मिश्रा said...

Bahut khub.

Anonymous said...

चलो, कुछ देर आंखें मूंद लें अब,
यहां मन को मसलती हैं निगाहें.


Achchhi line hai...
Badhai

Arvind Mishra said...

अरे वाह मौदगिल जी यह तो आप ने एक अविस्मरनीय रचना लिख डाली ....मन गए उस्ताद ! सभी शेर ख़ास है कोई आम, घास नहीं -निगाहों के जरिये तो आपने पूरा मानव व्यवहार शास्त्र ही रच डाला .बहुत सुंदर -बधाई !

vipinkizindagi said...

achchi gazal
achche sher....

Satish Saxena said...

क्या बात है ...