घर में चिन्ता खड़ी हो गयीं.
बच्चियां अब बड़ी हो गयीं.
फूल हैरान हैं आजकल,
तितलियां सरचढ़ी हो गयीं.
इंद्र जैसी हुई कामना,
इंद्रियां उर्वशी हो गयीं.
बात-बातों में ढहने लगी,
बस्तियां भुरभुरी हो गयीं.
सुखनवर हो गया लो शह्र,
फिर नशिस्तें खरी हो गयीं.
पत्ते झड़ने लगे शाख से ,
वेदनाएं हरी हो गयीं.
पेट भरता नहीं 'मौदगिल',
बाजुएं अधमरी हो गयीं.
--योगेन्द्र मौदगिल
13 comments:
बहुत अच्छी ग़ज़ल है। बधाई स्वीकार कीजिए।
आनन्द आया, एक बार पढ़ने के बाद दोबारा पढ़ रहा हूं.
हर शब्द दमदार है।
कलयुग?
बार बार पढने को मन करता है ....दिल छूने की सामर्थ्य है इस रचना में ! शुभकामनायें आपको !
पूरी गज़ल ही बहुत अच्छी ..
पत्ते झड़ने लगे शाख से ,
वेदनाएं हरी हो गयीं.
बेह्द उम्दा गज़ल्।
आपकी रचना यहां भ्रमण पर है आप भी घूमते हुए आइये स्वागत है
http://tetalaa.blogspot.com/
बहुत खूब !!
पत्ते झड़ने लगे शाख से ,
वेदनाएं हरी हो गयीं.
पूरी प्रस्तुति बेमिसाल...
फूल हैरान हैं आजकल,
तितलियां सरचढ़ी हो गयीं।
बहुत खूब ।
बेहतरीन ग़ज़ल...
पेट भरता नहीं 'मौदगिल',
बाजुएं अधमरी हो गयीं.
-बहुत खूब!!
umda post
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