पैसा सब कुछ पैसा क्या ?
देख रहा हूं दुनिया क्या ?
दीवारों को फांद ले यार,
दीवारों से डरना क्या ?
स्वर्ग यहीं है, नर्क यहीं,
आना क्या भई जाना क्या ?
देख न पाया इन्सां को,
फिर दुनिया में देखा क्या ?
फूल दिये पत्थर लेकर,
इससे बढ़िया सौदा क्या..
कहीं गेरूआ, पीत कहीं,
परदे ऊपर परदा क्या ?
फिर अपनों को ढूंढ रहा,
फिर खाएगा धोखा क्या ?
कान्हा तो मृगतृष्णा है,
क्या राधा भई मीरा क्या !
चलो 'मौदगिल' और कहीं,
हर डेरे पर रुकना क्या !
--योगेन्द्र मौदगिल
12 comments:
वाह जनाब, वाह..
वाह लेकिन ऐसी विरक्ति भी क्या :)
बेहतरीन, हम भी बढ़ रहे हैं।
waah waah waah
अप्रतिम पंक्तियाँ. सम्मानीय योगेन्द्र जी आपकी पंक्तियाँ पढ़कर ऐसा लगा मानो कबीर की साखी पढ़ रहा हूँ. बहुत ही सारगर्भित और संदेशात्मक भावों में पिरोई गीतिका. वैसे तो हर पंक्ति ह्रदय-स्पंदन में लय मिला गई पर खास कर ये पंक्तियाँ दिल में उतर कर घर गई..
कान्हा तो मृगतृष्णा है,
क्या राधा भई मीरा क्या !
चलो 'मौदगिल' और कहीं,
हर डेरे पर रुकना क्या !
आभार ! नमन !!
बहुत खूब! लाजवाब।
वाह!
फिर अपनों को ढूंढ रहा,
फिर खाएगा धोखा क्या ?
बार-बार पढने लायक
प्रणाम
बहुत खूब योगेन्द्र्।
अच्छी ग़ज़ल है योगेन्द्र जी, बधाई स्वीकार कीजिए।
वाह , आपसी संबंधों पर बढ़िया ग़ज़ल ।
bahut badhiya gazal.
कहीं गेरूआ, पीत कहीं,
परदे ऊपर परदा क्या ?
फिर अपनों को ढूंढ रहा,
फिर खाएगा धोखा क्या ?
बढ़िया प्रस्तुति ... सटीक कहा है
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