आज दो दोहे,
कल तीन,
परसों चार,
दस तक होने के बाद ग़ज़ल प्रारंभ करूंगा.
तब तक मेरा टायपिंग का
आपका पढ़ने का अभ्यास हो जायेगा .
इस बीच कोई विशेष व्यस्तता नहीं है सो टिपियाना भी जारी रहेगा
(लेन-देन के माहिर नोट करें)
August २२ को जोधपुर, २५ को बेतिया (बिहार) की
कविसम्मेलनीय यात्रा रहेगी
वहां के ब्लागर मित्र
098962 02929 या 094662 02099 पर सम्पर्क कर सकते हैं
लीजिये
दो दोहे
विग्यापन युग है लगी, धन की अंधी रेस.
तन के ग्राहक ढूंढते, ज़िस्मों के शो-केस..
अंधे को आंखें मिली, दूर हुआ अंधेर.
खुली आंख दिखने लगा, आंख-आंख में फेर..
--योगेन्द्र मौदगिल
13 comments:
कविवर!
पहला दोहा जहाँ आज की चकाचौंध के पीछे की असलियत बयान करता है, वहीं दूसरा समाज की असलियत... दोनों लाजवाब. ग़ज़ल के साथ साथ दोहावलि भी पोस्ट करें..यह एक अनमोल ख़ज़ाना है कविवर!!
गजब!!
यहा ँ से कट पेट कर लो:
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सुंदर
सुंदर दोहे..!!
बहुत ही सुन्दर!
योगेन्द्र जी, प्रणाम, कभी गुवाहाटी का भी प्रोग्राम बनाइये !
पहले दोहे की पहली पंक्ति पढ़ी नहीं गयी ! लेकिन दूसरा दोहा लाजवाब और आज की असलियत बयान करता हुआ है !
"तन के ग्राहक ढूँढ़ते जिस्मों के शो केस" वाह क्या कहने..
अति सुंदर जी
करत करत अभ्यास से, जड़ मत होत सुजान,
पर दोहे बनत नहीं, बस मत से श्रीमान.
आज एक , कल दो, ऐसे तो न कीजे,
आप करेगा हृदय 'मजाल', आप बस आने दीजे!
सुन्दर प्रस्तुति
स्वतंत्रता दिवस पर हार्दिक शुभकामना.
सामयिक और सटीक ।
कवी महाराज कहाँ थे इतने दिन...और फिर चल दिए अपना झोला उठाये.
बहुत अच्छे दोहे लिखे..
आगे भी इंतज़ार हैं.
टंकण प्रक्टिस लगता है बढ़िया कर ली है .
जय हिंद.
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