दुनिया एक कसाई बाडा, कत्ल यहाँ अरमानों का,
देख यहाँ पर सौदा होता, निसदिन ही मुस्कानों का।
तेज हवायें क्या कर लेंगी, मेरे मन की कश्ती का
हमने तो बचपन से सामना, रोज किया तूफानों का।
जब विकास की ज़द में आईं, सड़कें छाती चढ़ बैठीं
नगरी में बिछ गया जाल, बस तहखानों-तहखानों का।
कई सपेरे मिल कर अब तो, ढूंढ रहे उस नागिन को
जिसने डसवाया बस्ती से, सुख साया इमकानों का।
उसको तो भाते हैं किस्से, केवल सुर्ख गुलाबों के
जिसके घर में इन्तज़ाम है, रोज सुनहरे दानों का।
इक चंबल सुनते थे, अब तो बस्ती-बस्ती चंबल है
राजभवन में राज हुआ है, जंगल के शैतानों का।
रात अचानक मन में आया, शेर मियां दो-चार कहूं
गुजर गया भई दौर आजकल, बड़े-बड़े अफसानों का।
दहशत का है दौर, कि जिसमें धंधे सारे सहम गये
चेहरा उतरा हुआ ‘मौदगिल’, नगरी में दूकानों का।
- योगेन्द्र मौदगिल
21 comments:
बहुत सटीक, मौदगिल जी..आनन्द आ गया.
राजभवन में राज हुआ है जंगल के शैतानों का
देख नंगा तमाशा पिचासी पार 'जवानों' का...
कब्र में लटके पैर, लेकिन वियाग्रा के उफ़ानों का
गरत में दफ़न हो बुरा हाल इन बूढ़ी मचानों का...
जय हिंद...
यह अत्यंत हर्ष का विषय है कि आप हिंदी में सार्थक लेखन कर रहे हैं।
हिन्दी के प्रसार एवं प्रचार में आपका योगदान सराहनीय है.
मेरी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं.
निवेदन है कि नए लोगों को जोड़ें एवं पुरानों को प्रोत्साहित करें - यही हिंदी की सच्ची सेवा है।
एक नया हिंदी चिट्ठा किसी नए व्यक्ति से भी शुरू करवाएँ और हिंदी चिट्ठों की संख्या बढ़ाने और विविधता प्रदान करने में योगदान करें।
आपका साधुवाद!!
शुभकामनाएँ!
समीर लाल
उड़न तश्तरी
वर्तमान को शब्दों में डाल दिया..सच कहूं तो पेंटर रंगों से कवि शब्दों से तस्वीर बनाता है।
शौचालय से सोचालय तक
बेहद सुन्दर अभिव्यक्ति.....
regards
योगेन्द्र जी-"एक और था" शायद भुल गए अब उसे:)
घणी सुंदर और रोचक, नया साल की रामराम.
रामराम.
राजभवन वाले भूतपूर्व बुरा मान जायेंगे. ;)
क्या गज़ब का लिखते हो भाई जी ! जितनी प्रसंशा की जाये कम है !
सदा की तरह एक और सुंदर और सटीक रचना। बहुत-बहुत धन्यवाद
आपको नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं।
सही इंगित किया है आपने
बहुत बढ़िया व सटीक रचना है।बधाई।
बहुत ही सुन्दर रचना।
एक एक सच्चाई छांप दी।
सत्य वचन योगेंदर जी आप ने लिखे इस गजल मै, धन्यवाद
बहुत सुन्दर !
आज की आपकी ये ग़ज़ल रोज़ से कुछ हटकर रही. लेकिन उतनी ही बेहतरीन. आभार.
आपकी कलम से निकली ऎसी बेहतरीन रचनाऎँ पढ पढ कर म्हारे पास तो अब तारीफ के लिए शब्दों का भी टोटा पड गया :)
बहुत सही गुरूदेव! मज़ा आ गया। कई दिनों तक इंटरनेट से दूर था पर जैसे आया, आना सार्थक हो गया। दुबारा फ़िर से पढ़ता हूं।
सामाजिक मुद्दों को बड़े ही सुंदर और सटीक ढंग से प्रस्तुत करना एक बेहतरीन कला है जिसमें आपको महारत हासिल है..हर लाइन एक एक बात कहती हुई आगे बढ़ती है...मुझे तो बहुत ही अच्छा लगा..
मैं इसमें दो लाइन और जोड़ना चाहूँगा..जैसे...
पश्चिम की धारा में आकर त्याग किए परिधानों का,
सब कुछ पैसा बन बैठा है, दाम गिरा इंसानों का..
Hmmm .... !
wah wah wah. behatareen.
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