गेरुआ : चार व्यंग्यचित्र घनाक्षरी में
आज चौथा
रासलीला प्रिय मुझे, जीवन भी रास लगे,
इसीलिये क्षण-क्षण, रास रचा लेता हूं.
रुक्मिणी अपनी को, रखता हूं घर में ही,
बाहर तो बाहर की, राधा नचा लेता हूं.
चाहे गिरे बिजली, पहाड़ टूट जाये पर,
फिर भी मैं खुद को, हुजूर बचा लेता हूं.
दौर डाइटिंग का हो, अपनी रसोई में तो,
पड़ौसियों के घर की मैं, खीर पचा लेता हूं.
--योगेन्द्र मौदगिल
13 comments:
व्यंग नही यह सत्य है,
देखा जाता है,अक्सर,
अंदर कुछ और बाहर कुछ,
इस दुनिया की कुछ मत पूछ,
जो दिखता है वो ज़रूरी नही सही हो.. पर आप की कविता सच्चाई लिए है..बड़े शहर है बड़े लोग है ये सब तो अब फैशन होता जा रहा है..कुछ लोग तो इसे शान समझते है..ये है जमाना...बढ़िया प्रस्तुति ताऊ जी..बधाई हो..
अरे ये चारों चित्र तो अभी देख पा रहा हूं गुरूवर।
अद्भुत!
अद्भुत!!
अद्भुत!!!
अद्भुत!!!!
सीधे सीधे कहने में आप का जवाब नहीं।
शानदार! वजनदार!!
योगेंद्र भाई,
किसी नेता से मिल लिए क्या...
जय हिंद...
गज़ब की चित्रकारी है,दिल जीत लिया आपने भाईजी।
बढिया है । फिर भी मैं खुद को हुजूर बचा लेता हूँ ।
अति सुन्दर, आप में तो नेता के सारे गुण नजर अ रहे है :)
हा हा हा ये भी खूब कही है योगेंद्र भाई घर में डाइटिंग हो तो पड़ोसी के घर जाकर खीर खइये । छंद विधान में आपकी महारत को सलाम ।
आजकल ऐसा ही ज़माना है।
बहुत खूबसूरती से पेश किया है आपने।
aap ki rachnayen samaaj ka sach batati hain ..
aur yah to sateek likha hai..aakhiri panktiyan mazedaar hain!
Bahut bahut sundar....waah !!!
wah wah wah. maudgil ji kamaal.
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