गेरुआ : चार व्यंग्यचित्र


गेरुआ : चार व्यंग्यचित्र घनाक्षरी में

आज चौथा




रासलीला प्रिय मुझे, जीवन भी रास लगे,
इसीलिये क्षण-क्षण, रास रचा लेता हूं.


रुक्मिणी अपनी को, रखता हूं घर में ही,
बाहर तो बाहर की, राधा नचा लेता हूं.


चाहे गिरे बिजली, पहाड़ टूट जाये पर,
फिर भी मैं खुद को, हुजूर बचा लेता हूं.


दौर डाइटिंग का हो, अपनी रसोई में तो,
पड़ौसियों के घर की मैं, खीर पचा लेता हूं.
--योगेन्द्र मौदगिल


13 comments:

विनोद कुमार पांडेय said...

व्यंग नही यह सत्य है,
देखा जाता है,अक्सर,
अंदर कुछ और बाहर कुछ,
इस दुनिया की कुछ मत पूछ,

जो दिखता है वो ज़रूरी नही सही हो.. पर आप की कविता सच्चाई लिए है..बड़े शहर है बड़े लोग है ये सब तो अब फैशन होता जा रहा है..कुछ लोग तो इसे शान समझते है..ये है जमाना...बढ़िया प्रस्तुति ताऊ जी..बधाई हो..

गौतम राजऋषि said...

अरे ये चारों चित्र तो अभी देख पा रहा हूं गुरूवर।

अद्‍भुत!
अद्‍भुत!!
अद्‍भुत!!!
अद्‍भुत!!!!

दिनेशराय द्विवेदी said...

सीधे सीधे कहने में आप का जवाब नहीं।

Udan Tashtari said...

शानदार! वजनदार!!

Khushdeep Sehgal said...

योगेंद्र भाई,
किसी नेता से मिल लिए क्या...

जय हिंद...

Anil Pusadkar said...

गज़ब की चित्रकारी है,दिल जीत लिया आपने भाईजी।

अर्कजेश said...

बढिया है । फिर भी मैं खुद को हुजूर बचा लेता हूँ ।

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

अति सुन्दर, आप में तो नेता के सारे गुण नजर अ रहे है :)

पंकज सुबीर said...

हा हा हा ये भी खूब कही है योगेंद्र भाई घर में डाइटिंग हो तो पड़ोसी के घर जाकर खीर खइये । छंद विधान में आपकी महारत को सलाम ।

डॉ टी एस दराल said...

आजकल ऐसा ही ज़माना है।
बहुत खूबसूरती से पेश किया है आपने।

Alpana Verma said...

aap ki rachnayen samaaj ka sach batati hain ..

aur yah to sateek likha hai..aakhiri panktiyan mazedaar hain!

रंजना said...

Bahut bahut sundar....waah !!!

Yogesh Verma Swapn said...

wah wah wah. maudgil ji kamaal.