बिजली देवी की मेहरबानी आज रहने की उम्मीद है.... लेकिन आज दोपहर बाद रोहतक में कैमिस्ट एसोसियेशन द्वारा आयोजित कवि-सम्मेलन भी. अपने पसंदीदा ब्लाग्स पर जाने का बहुत मन है पर आज फिर इंतज़ार करना होगा बहरहाल आप सब के लिये एक ग़ज़ल पेश कर रहा हूं पसंद आनी चाहिये.... शेष विशेष इस के बाद...
बच्चों के अधरों पर जब भी दिखती है मुस्कान मुझे.
जाने कितने बरसों पीछे ले जाता है ध्यान मुझे.
मुट्ठी से धूएं सी यादें जाने कब की फिसल गईं,
लेकिन सपनों में दिखता है कच्चा एक मकान मुझे.
अब भी दे जाता रातों में सर्द झुरझुरी सी अक्सर,
बड़ी हवेली के आले में सैय्यद का इमकान मुझे.
वो इमली, वो बरगद-बगिया, वो कोयल, वो मंदिर-घाट,
वह पाठशाला कि जिसमें रटती थी गरदान मुझे.
आवास योजना के क्वार्टर में मेरा बेटा यों बोला,
पप्पा इक दिन दिखलाऒ ना गांव खेत खलिहान मुझे.
शहरी बनने के चक्कर में झूठ बोलना सीख गया,
अब वो चौपाली रतबतियां करती हैं हैरान मुझे.
चौका लीप रही बूआ ने मेरा माथा चूम लिया,
मेरा बेटा रहा देखता बहुत देर हैरान मुझे.
एक हीन ग्रन्थि का मारा सोच रहा मैं पड़ा पड़ा,
क्या सचमुच ही समझ लिया है बहुऒं जे महमान मुझे.
मेरे मुंह पर अक्सर उसने मुझको बहुत दुआएं दी,
पीठ मोड़ते ही कह डाला जालिम ने शैतान मुझे.
--योगेन्द्र मौदगिल
20 comments:
बहुत बढिया योगेन्द्र भाई॥गांव का सच और शहर का झूठ हैरान कर गया मुझे
हमेशा की तरह एक और उम्दा रचना ...
bahut hi sundar hai bachcho ke hotho par muskan...
आवास योजना के क्वार्टर में मेरा बेटा यों बोला,
पप्पा इक दिन दिखलाऒ ना गांव खेत खलिहान मुझे.
शहरी बनने के चक्कर में झूठ बोलना सीख गया,
अब वो चौपाली रतबतियां करती हैं हैरान मुझे.
चौका लीप रही बूआ ने मेरा माथा चूम लिया,
मेरा बेटा रहा देखता बहुत देर हैरान मुझे.
एक हीन ग्रन्थि का मारा सोच रहा मैं पड़ा पड़ा,
क्या सचमुच ही समझ लिया है बहुऒं जे महमान मुझे.
maudagil sahib in chaaro she'ron ke baare me kuchh kahi jaaye mushkil hi hai ... jis adab se baat aapne ki hai wo to maanane layak hai... aapki lekhani ki dhaar ki yahi visheshataa hai... kamaal ki baat kahi hai aapne.. bahot bahot badhaayee sahib...
arsh
योगेन्द्र जी निहाल कर दिया इन शेरों ने....एक बेमिसाल लाजवाब ग़ज़ल...बड़े दिनों बाद एक अलग-सी एकदम जुदा-सी ग़ज़ल....अहा! चंद मिस्रों ने पलकें भिगो दी...
"मुट्ठी से धूएं सी यादें जाने कब की फिसल गईं/लेकिन सपनों में दिखता है कच्चा एक मकान मुझे" या फिर ये शेर "आवास योजना के क्वार्टर में मेरा बेटा यों बोला/पप्पा इक दिन दिखलाऒ ना गांव खेत खलिहान मुझे"....और फिर वो बहुओं वाला शेर और मक्ता भी....
सब तारिफ़ों से परे है गुरूवर!
चौका लीप रही बूआ ने मेरा माथा चूम लिया,
मेरा बेटा रहा देखता बहुत देर हैरान मुझे.
मेरे मुंह पर अक्सर उसने मुझको बहुत दुआएं दी,
पीठ मोड़ते ही कह डाला जालिम ने शैतान मुझे।।
वाह्! अद्भुत है जी!! बेहतरीन्! हर शेर उम्दा!!!!
शहरी बनने के चक्कर में झूठ बोलना सीख गया,
अब वो चौपाली रतबतियां करती हैं हैरान मुझे.
bahut sunder bhaav hain is kavita men
आवास योजना के क्वार्टर में मेरा बेटा यों बोला,
पप्पा इक दिन दिखलाऒ ना गांव खेत खलिहान मुझे.
शहरी बनने के चक्कर में झूठ बोलना सीख गया,
अब वो चौपाली रतबतियां करती हैं हैरान मुझे.
गुरु देव आपकी तो हर बात पर वह वाह निकलता है................ इतने लाजवाब शेर एक ही जगह पढने को मिल जाते हैं की दिन बन जाता है अपना तो........... सब कुछ लुटाने को मन करता ही........... गज़ब के शेर हैं
मौदगिल जी बहुत बढिया बेहतरीन लिखा है आपने मजा आता है आपको पढकर
काफी दिनों बाद आने के लिए माफी चाहता हूं
आज फिर उम्दा.
बचपन की यादों में ले गये आप.
मुट्ठी से धूएं सी यादें जाने कब की फिसल गईं,
लेकिन सपनों में दिखता है कच्चा एक मकान मुझे.
अति सुन्दर!
बच्चों के अधरों पर जब भी दिखती है मुस्कान मुझे.
जाने कितने बरसों पीछे ले जाता है ध्यान मुझे
मुट्ठी से धूएं सी यादें जाने कब की फिसल गईं,
लेकिन सपनों में दिखता है कच्चा एक मकान मुझे
काबिले तारिफ़ रचना!
नमस्कार यौगेन्द्र जी,
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल है, वैसे तो हर शेर अपने आप में एक कहानी और एक याद समेटे हुए है पर मतला और एक शेर मेरे दिल को छु गए.........
बच्चों के अधरों पर जब भी दिखती है मुस्कान मुझे.
जाने कितने बरसों पीछे ले जाता है ध्यान मुझे.
मुट्ठी से धूएं सी यादें जाने कब की फिसल गईं,
लेकिन सपनों में दिखता है कच्चा एक मकान मुझे.
मुट्ठी से धूएं सी यादें जाने कब की फिसल गईं,
लेकिन सपनों में दिखता है कच्चा एक मकान मुझे.
बहुत खूबसूरत है... कुछ शेर कई बार पढ़े हैं, अब वे साथ नहीं छोडेंगे
बहुत शानदार गजल कही है। बधाई।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
शहरी बनने के चक्कर में झूठ बोलना सीख गया,
अब वो चौपाली रतबतियां करती हैं हैरान मुझे.
- सुन्दर.
बहुत खूब तुलना की है आपने मौदगिल जी आधुनिकता और उसकी जो हम पीछे छोड़ आये हैं..बहुत खूब
aise hi yug hota ja raha hai..ham sab adhunikata me bahe chale ja rahe hai..
behatreen darshaya aapne..
बच्चों के अधरों पर जब भी दिखती है मुस्कान मुझे.
जाने कितने बरसों पीछे ले जाता है ध्यान मुझे.
- मिसरे बदल के देखें तो? (ज़रा अल्फाज़ भी ठीक करने पड़ेंगे)
अब भी दे जाता रातों में सर्द झुरझुरी सी अक्सर,
बड़ी हवेली के आले में सैय्यद का इमकान मुझे.
- ??? (बाउंसर) :-(
वो इमली, वो बरगद-बगिया, वो कोयल, वो मंदिर-घाट,
वह पाठशाला कि जिसमें रटती थी गरदान मुझे.
- इमली - पाठ - बहर/लय ठीक नहीं आ रही .. शायद ??
शहरी बनने के चक्कर में झूठ बोलना सीख गया,
अब वो चौपाली रतबतियां करती हैं हैरान मुझे.
- वाह!
चौका लीप रही बूआ ने मेरा माथा चूम लिया,
मेरा बेटा रहा देखता बहुत देर हैरान मुझे.
- Jewel in the crown वैसे शे'र बहुत बढ़िया है मगर सोच में भी डाल देता है | कई तर्जुमे |!!
एक हीन ग्रन्थि का मारा सोच रहा मैं पड़ा पड़ा,
क्या सचमुच ही समझ लिया है बहुऒं जे महमान मुझे.
- ???
मेरे मुंह पर अक्सर उसने मुझको बहुत दुआएं दी,
पीठ मोड़ते ही कह डाला जालिम ने शैतान मुझे.
- ये वाला भी बहुत बढ़िया !!
प्रणाम
RC
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