बहुत दिनों के बाद आप सब के लिये एक गजल लेकर उपस्थित हूं पेश है कि
जंगलों में उत्सवों की ये जवानी देख कर
हैरान हूं सारे शहर को पानी-पानी देख कर
चालाक कव्वे दूर से ही तब्सिरा करते रहे
फाख्ताएं फंस गई जो दाना-पानी देख कर
घर में तोते पाल कर तू गालियां बकता रहा
अब परेशां क्यूं है उन की बदज़बानी देख कर
कितनी रातों से उसे झपकी तलक आती नहीं
बिगड़ा ज़माना देख कर बिटिया सयानी देख कर
ये बुढ़ापा और जवानी रोते-रोते कट गये
और बचपन हंस पड़ा परियों की रानी देख कर
--योगेन्द्र मौदगिल
35 comments:
कितनी रातों से उसे झपकी तलक आती नहीं
बिगड़ा ज़माना देख कर बिटिया सयानी देख कर
-जबरदस्त बात कह गये!!
बहुत ही बढ़िया ग़ज़ल कही आपने
---
विज्ञान । HASH OUT SCIENCE
घर में तोते पाल कर तू गालियां बकता रहा
अब परेशां क्यूं है उन की बदज़बानी देख कर
बहुत अच्छी गज़ल है गुरूदेव। इतने दिनों बाद आप आये और पूरे रंग में आये, अच्छा लगा।
बहुत खूब भाई. बहुत ही बढ़िया.
जंगलों में उत्सवों की ये जवानी देख कर
हैरान हूं सारे शहर को पानी-पानी देख कर
बहुत खूब भाई..बढ़िया.
घर में तोते पाल कर तू गालियां बकता रहा
अब परेशां क्यूं है उन की बदज़बानी देख कर
LAUTE MAGAR PURE RANG ME AAP FIR SE FIR SE LAGAYA AAPNE KARAARA ... BAHOT HI KHUBSURATI SE'
ARSH
घर में तोते पाल कर तू गालियां बकता रहा
अब परेशां क्यूं है उन की बदज़बानी देख कर
बिलकुल सही , बहुत सुंदर लगी आप की यह गजल
धन्यवाद
घर में तोते पाल कर तू गालियां बकता रहा
अब परेशां क्यूं है उन की बदज़बानी देख कर
वाह...उस्ताद जी...मज़ा आ गया ...आपने तो एक शेर में ही कईयों को आईना दिखा दिया
घर में तोते पाल कर तू गालियां बकता रहा
अब परेशां क्यूं है उन की बदज़बानी देख कर
kya baat hai waah bahut badhiya
बहुत खूब अच्छी रचना
घर में तोते पाल कर तू गालियां बकता रहा
अब परेशां क्यूं है उन की बदज़बानी देख कर
huzoor ! jawaab nahi is sher ka...
ek dm nayaab ,, lajawaab,, sachchaa
bahut hi achhi gzl kahi hai,,, badhaaee svikaareiN.
aur....haasya-vyangya ko kuchh raftaar mili...??
duaaoN ke saath
---MUFLIS---
योगेन्द्र जी कुछ शेर ऐसे होते हैं जो दूसरों को ढक लेते हैं बड़ी मुश्किल होती है किसी शेर को अच्छा कहते हुए क्योंकि कई खूबसूरत शेर उसकी छाया में धुंधला से जाते है, मुझे जो पसंद आये वो शेर आपको लिखता हूँ.
जंगलों में उत्सवों की ये जवानी देख कर
हैरान हूं सारे शहर को पानी-पानी देख कर
चालाक कव्वे दूर से ही तब्सिरा करते रहे
फाख्ताएं फंस गई जो दाना-पानी देख कर
घर में तोते पाल कर तू गालियां बकता रहा
अब परेशां क्यूं है उन की बदज़बानी देख कर
कितनी रातों से उसे झपकी तलक आती नहीं
बिगड़ा ज़माना देख कर बिटिया सयानी देख कर
ये बुढ़ापा और जवानी रोते-रोते कट गये
और बचपन हंस पड़ा परियों की रानी देख कर
इतना कडुवा सच इतनी सादगी से।शानदार दिल जीत लिया आपने।
कितनी रातों से उसे झपकी तलक आती नहीं
बिगड़ा ज़माना देख कर बिटिया सयानी देख कर
बहुत सटीक बात कही.
रामराम.
घर में तोते पाल कर तू गालियां बकता रहा
अब परेशां क्यूं है उन की बदज़बानी देख कर
आपकी ग़ज़ल में एक आधा शेर ऐसा होता है जिसे पहले कभी सुना पढ़ा नहीं होता...इस ग़ज़ल में भी हमें मिल गया...आपकी प्रतिभा के हम दिल से कायल हैं जनाब...क्या खूब लिखते हैं आप...वाह...
नीरज
कितनी रातों से उसे झपकी तलक आती नहीं
बिगड़ा ज़माना देख कर बिटिया सयानी देख कर..
क्या बात कह दी आपने ,बेहतरीन.
घर में तोते पाल कर तू गालियां बकता रहा
अब परेशां क्यूं है उन की बदज़बानी देख कर
कितनी रातों से उसे झपकी तलक आती नहीं
बिगड़ा ज़माना देख कर बिटिया सयानी देख कर
सिर्फ लाजवाब ही कह सकते हैं। हमें तो आपकी इस बेहतरीन गजल की तारीफ के लिए कोई ओर शब्द ही नहीं मिल रहा।
बेहतरीन गजल। हमेशा की तरह समाज के कई पहलुओं को उजागर करता हुआ। ये खास पसंद आया-
घर में तोते पाल कर तू गालियां बकता रहा
अब परेशां क्यूं है उन की बदज़बानी देख कर
ये बुढ़ापा और जवानी रोते-रोते कट गये
और बचपन हंस पड़ा परियों की रानी देख कर
शब्द नहीं मिल rahe gurudev......... har sher nayaa kuch bolta huva lagta hai..... subhaan alla ....
चलिये आपके गायब होने को माफ किया जाता है क्योंकि आपने काम ही इतना अच्छा किया है.
आपकी रचनाओं से अनुभव खुलेआम टपकता है !
ये बुढ़ापा और जवानी रोते-रोते कट गये
और बचपन हंस पड़ा परियों की रानी देख कर
bahut badhiya.....
"कितनी रातों से उसे झपकी तलक आती नहीं
बिगड़ा ज़माना देख कर बिटिया सयानी देख कर"
इस शेर के लिये कुछ भी सर!
और आखिरी शेर का जादू...अहा!
घर में तोते पाल कर तू गालियां बकता रहा
अब परेशां क्यूं है उन की बदज़बानी देख कर
क्या सच्चा और अच्छा लिखा है !!
वाह !!
'घर में तोते पाल कर तू गालियां बकता रहा
अब परेशां क्यूं है उन की बदज़बानी देख कर'
- ये पंक्तियाँ तो पाकिस्तान पर फिट बैठती हैं. बाकी सभी शेर हमेशा की ही तरह असरदार हैं.
यहां तो दूर-दूर तक कहीं पानी के आसार भी नहीं दिखते और सारा शहर पानी-पानी दिखाई दे रहा है.
भाई पानीपत आऒ तो
दिखाएं पानी
और
पानी पर जमाएं पानी
ये बुढ़ापा और जवानी रोते-रोते कट गये
और बचपन हंस पड़ा परियों की रानी देख कर
वाह-वाह! बेहतरीन रचना, बधाई!
घर में तोते पाल कर तू गलियां बकता रहा "" अपने माहौल पे इल्जाम लगते क्यों हो ,आग के शहर में बारूद बनाते क्यों हो |तुमने खुद रहजनों को नए चेहरे बख्शे ,अब लुटे हो तो लूटो शोर मचाते क्यों हो "
योगेन्द्र मौदगिल जी,
एक नई साहित्यिक पहल के रूप में इन्दौर से प्रकाशित हो रही पत्रिका "गुंजन" के प्रवेशांक को ब्लॉग पर लाया जा रहा है। यह पत्रिका प्रिंट माध्यम में प्रकाशित हो अंतरजाल और प्रिंट माध्यम में सेतु का कार्य करेगी।
कृपया ब्लॉग "पत्रिकागुंजन" पर आयें और पहल को प्रोत्साहित करें। और अपनी रचनायें ब्लॉग पर प्रकाशन हेतु editor.gunjan@gmail.com पर प्रेषित करें। यह उल्लेखनीय है कि ब्लॉग पर प्रकाशित स्तरीय रचनाओं को प्रिंट माध्यम में प्रकाशित पत्रिका में स्थान दिया जा सकेगा।
आपकी प्रतीक्षा में,
विनम्र,
जीतेन्द्र चौहान(संपादक)
मुकेश कुमार तिवारी ( संपादन सहयोग_ई)
...behatreen gajal !!!!
कितनी रातों से उसे झपकी तलक आती नहीं
बिगड़ा ज़माना देख कर बिटिया सयानी देख कर ।
सच और वो भी इतनी आसानी से !
क्या बात है?
योगेंद्र को इस बात पर दे दुआ
उनकी कही इस सीधी-सच्ची बात पर
Bahut badhiya Gazal Yogendra ji! Yah ashaar behad pasand aaye. Makataa behad behad khoobsoorat!
Pranaam
RC
जंगलों में उत्सवों की ये जवानी देख कर
हैरान हूं सारे शहर को पानी-पानी देख कर
चालाक कव्वे दूर से ही तब्सिरा करते रहे
फाख्ताएं फंस गई जो दाना-पानी देख कर
कितनी रातों से उसे झपकी तलक आती नहीं
बिगड़ा ज़माना देख कर बिटिया सयानी देख कर
ये बुढ़ापा और जवानी रोते-रोते कट गये
और बचपन हंस पड़ा परियों की रानी देख कर
Makta bhi badhiya hai ji, perfect. Mere padhne mein hi ghalati thi. Maafi chahoongi.
Pranaam
RC
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