इक धमाका सा हुआ जब से नगर के बीचोंबीच.
कितनी दीवारें उठी फिर घर से घर के बीचोंबीच.
इन दिवारों से कहो अब कानाफूसी बंद हो,
हर कदम पर कान हैं अब इस शहर के बीचोंबीच.
स्कूली बच्चे ढूंढते रिक्शा में बैठे गौर से,
अपना भविष्य फिल्म के हर पोस्टर के बीचोंबीच.
पेट की मजबूरियां क्या-क्या कराती हैं सखी,
सोचती अक्सर वो नीले नाचघर के बीचोंबीच.
अब तो बस आतंक के डंके बजे हैं देख लो,
मौत के अल्फाज यारों हर खबर के बीचोंबीच.
कितनी नावें गर्व से उल्टी पड़ी हैं 'मौदगिल',
कितने तिनके शान से फैले नहर के बीचोंबीच.
--योगेन्द्र मौदगिल
23 comments:
आज के माहौल पर बेहद सशक्त लेखन.
इक धमाका सा हुआ जब से नगर के बीचोंबीच.
कितनी दीवारें उठी फिर घर से घर के बीचोंबीच.
कायल हो गए इस बारे पे! एक धमाका सब कुछ नष्ट करता है पर साथ में दिलों में दीवारें भी खड़ी करता है.
स्कूली बच्चे ढूंढते रिक्शा में बैठे गौर से,
अपना भविष्य फिल्म के हर पोस्टर के बीचोंबीच.
अब तो बस आतंक के डंके बजे हैं देख लो,
मौत के अल्फाज यारों हर खबर के बीचोंबीच.
शानदार ग़ज़ल के पसंदीदा शेर.
सोचने को मजबूर करता है कि भविष्य कैसा होगा यदि आज ऐसा है ?????????
आभार.
चन्द्र मोहन गुप्त
पेट की मजबूरियां क्या-क्या कराती हैं सखी,
सोचती अक्सर वो नीले नाचघर के बीचोंबीच....
बहुत भावपूर्ण रचना .
बहुत सुंदर ग़ज़ल सर..बहुत सुंदर।
"इन दिवारों से कहो अब कानाफूसी बंद हो/हर कदम पर कान हैं अब इस शहर के बीचोंबीच"
वाह!..हर शेर लाजवाब
लेकिन मक्ते तो अतुलनीय है सर!!! सोच और ख्यालों की परवाज अचंभित करती है...
गज़ब करते हो भाई!! बेहतरीन!!
बहुत बेहतरीन रचना.
रामराम.
इन दिवारों से कहो अब कानाफूसी बंद हो,
हर कदम पर कान हैं अब इस शहर के बीचोंबीच.
is she'r ke kya kahane maudgil sahib... bahot hi shaandaar tarike se kahi hai aapne... dhero badhaayee sahib...
arsh
आपकी टिपण्णी के लिए बहुत बहुत शुक्रिया!
आपने बहुत ही सुंदर रचना लिखा है! आपकी जितनी भी तारीफ की जाए कम है! बहुत खूब!
बहुत सुंदर.
बहुत ही ज़ोरदार
स्कूली बच्चे ढूंढते रिक्शा में बैठे गौर से,
अपना भविष्य फिल्म के हर पोस्टर के बीचोंबीच.
bahut sateek likha hai...badhaai
स्कूली बच्चे ढूंढते रिक्शा में बैठे गौर से,
अपना भविष्य फिल्म के हर पोस्टर के बीचोंबीच.
और-
अब तो बस आतंक के डंके बजे हैं देख लो,
मौत के अल्फाज यारों हर खबर के बीचोंबीच
बहुत उम्दा शेर हैं..चंद शब्दों में बहुत कह गए..
आप की रचनाएँ सामयिक होती हैं आज के समाज का आईना.
सच है ,स्थिति यही है..दुखद ही है!
एक और कमाल की रचना ... !
वाह भी आह भी !
अब तो बस आतंक के डंके बजे हैं देख लो,
मौत के अल्फाज यारों हर खबर के बीचोंबीच.
bahut khoob maudgil ji, aapki har gazal unique, subject par, apne aap men rochak hai.
समकालीन समाज की सच्ची तश्वीर देखने को मिली इस गजल में।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
यथार्थ।
कितनी नावें गर्व से उल्टी पड़ी हैं 'मौदगिल',
कितने तिनके शान से फैले नहर के बीचोंबीच.
वाह भाई जी वाह...इस शेर के लिए आपकी जय हो....जिंदाबाद भाई जी कमाल किया आपने...वाह
नीरज
सुपर रचना, इस बार तो कमाल ही कर दिया.
कितनी नावें गर्व से उल्टी पड़ी हैं 'मौदगिल',
कितने तिनके शान से फैले नहर के बीचोंबीच.
kya baat hai ....maudgil ji....ye sher bahut pasand aaya......
अब तो बस आतंक के डंके बजे हैं देख लो,
मौत के अल्फाज यारों हर खबर के बीचोंबीच.
वाह.......हर शेर पर यही आवाज़ निकलती है.............. कितनी गहराई है छुपी हुयी ..........
आपकी कलम को सलाम
बहुत सुन्दर ग़ज़ल योगेन्द्र जी!
बहुत ही खूबसूरती से पेश किया आपने!
ये रहा आपके सवाल का जवाब....
मेरे ब्लॉग के दरवाज़े कभी बंध नहीं होते, जब चाहे तब आ जाईयेगा!
bahut achhi rachna hai....main aisee kavitaon ko khoob pasand karta hoon...BADHAI HO BHAI
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