मित्रवर ईष्टदेव सांकृत्यायन जी को सादर समर्पित
इस रचना के बारे में एक बात बताना चाहता हूं कि ये रचना हुई कैसे,
दरअसल मुझे जूते खरीदने थे तो अपने शाम की बैठक के एक मित्र सलूजा जी को मैने कहा कि यार आपके जूते बहुत बढ़िया हैं. मैं भी ऐसे ही जूते लेना चाहता हूं. कहा से लिये..?
सलूजा जी बोले, यार, ये पैग खत्म करो फिर जूते लेने ही चलते हैं और वो मुझे अपनी गाड़ी में बिठा कर जीटीरोड पर एक बड़े शोरूम में ले गये. सेल्जमैन जो उनका परिचित था लपक कर सलाम ठोकता आया. नमस्ते तो उसने मुझे भी की पर उसने मेरे पैरों में पहने जूते देख कर उन जूतों के स्टेटस के हिसाब से...
उसने जूते दिखाने शुरू किये हालांकि मैं भी कुछ काम्प्लैक्स में था पर फिर भी हिम्मत कर दो-तीन जोड़ी अलग रख उनका दाम पूछा तो ३६०० से ४५०० रू के बीच में था मुझे ऐसा लगा कि उसने जूतों का दाम नहीं बताया साला जूता ही उठा कर मार दिया तमाचे की तरह... अपनी तो लग्ज़री बाटा या एक्शन पर आकर ही खतम हो जाती है.
मैं उठ खड़ा हुआ. मुझे खड़ा होते देख सलूजा जी भी सकपका कर उठ खड़े हुये. हम बाहर आये. गाड़ी में बैठ कर अगला पैग बनाया. घूंट लेने से पूर्व ही निम्न दो पंक्तियों का जन्म हुआ
जूत हुये गलहार देश का क्या होगा
जूते बंदनवार देश का क्या होगा
हम लौट आये और सुबह उठते ही मैंने चार छंद लिखे उन में टेक लगाई और इस तरह ये पूरी कविता बनी
आप पढ़ें और अपनी राय से अवगत करायें
वाह जूतमपैज़ार, देश का क्या होगा..?
अंधे पहरेदार, देश का क्या होगा..?
प्रश्न यही हरबार, देश का क्या होगा..?
उत्तर ढूंढो यार, देश का क्या होगा..?
शहर की तामझाम लील गयी पुरवा को,
गांव की डगर अब कोई नहीं देखता.
अधनंगी छोरियों के चित्र ढूंढते हैं लोग,
अखबार में खबर अब कोई नहीं देखता.
दिखते शो-पीस जैसे पेड़ वही बीजते हैं,
दरख्तों के समर अब कोई नहीं देखता.
ठाट-बाट नापते हैं जूतियों को देख कर,
हाथ का हुनर अब कोई नहीं देखता......
जूते बंदनवार, देश का क्या होगा..?
झूठ का कारोबार, देश का क्या होगा..?
प्रश्न यही हरबार, देश का क्या होगा..?
उत्तर ढूंढो यार, देश का क्या होगा..?
मिली ना दिहाड़ी तो वो फांकता ही रहा धूल,
रोटियों का ख्वाब लिये टूट गयी जूतियां.
डिग्रियों का बैग लिये दफ्तरों की सीढ़ियों से,
एक दिन काया जैसी टूट गयी जूतियां.
बेटियों के लिये वर खोजने गया जो बाप,
उसके यक़ीन जैसी टूट गयी जूतियां.
एक दिन वही हुआ वो जो चाहा ही नहीं था,
छूट गयी दुनिया तो छूट गयी जूतियां.
जूते हैं बदकार, देश का क्या होगा..?
जूते ही घरबार, देश का क्या होगा..?
प्रश्न यही हरबार, देश का क्या होगा..?
उत्तर ढूंढो यार, देश का क्या होगा..?
सत्ता की दलाली फले गोरी-गोरी जूतियों से,
दफ्तरों में चांदी वाली चलती हैं जूतियां.
मुर्गियां फंसती हैं जूतियों के डर से तो,
मछलियां आजकल तलती हैं जूतियां.
नेता जी चुनाव जीत आये तो नेताइन बोली,
इनको तो वोटरों की फलती हैं जूतियां.
संसद से लौटे इक पत्रकार ने बताया,
वहां भी तो आजकल चलती हैं जूतियां.
जूत हुये गलहार, देश का क्या होगा..?
वाह जूतमपैजार, देश का क्या होगा..?
प्रश्न यही हरबार, देश का क्या होगा..?
उत्तर ढूंढो यार, देश का क्या होगा..?
वक्त की अजब मार करना भरोसा पड़ै,
खादी ढकी बिल्लियों पै, बिच्छुऒं पै, जोंक पै.
मूंह से तो चुप्प रहें जूतियों से बात करें,
सारे जूतयार हर उत्सव या शोक पै.
जूतियों में डाल दाल बांट रहे राजनेता,
और जूत चलते है घर-घर-चौक पै.
जूतखोर, सूदखोर, माफिया के भाई लोग,
देश को भी रखते हैं जूतियों की नोक पै.
गुंडे पालनहार, देश का क्या होगा..?
सब जूतों के यार, देश का क्या होगा..?
प्रश्न यही हरबार, देश का क्या होगा..?
उत्तर ढूंढो यार, देश का क्या होगा..?
--योगेन्द्र मौदगिल
पुनश्चः
हास्य-व्यंग्य के पुरोधा कवि अशोक चक्रधर जी ने अपने संचालन में सब टीवी के प्रख्यात कार्यक्रम वाह-वाह में जब जूतमपैजार पर एपिसोड बनाने की सोची तो रात ११-३० पर मुझे फोन कर आदेश किया कि मैं इस कविता की रिकार्डिंग के लिये तुरन्त तैयारी करूं फिर तय कार्यक्रम के अनुसार वाह-वाह में इस का प्रसारण हुआ
29 comments:
भाई घणी जोरदार रचना, बहुत बधाई.
रामराम.
गुंडे पालनहार, देश का क्या होगा..?
सब जूतों के यार, देश का क्या होगा..?
प्रश्न यही हरबार, देश का क्या होगा..?
उत्तर ढूंढो यार, देश का क्या होगा..?
--योगेन्द्र मौदगिल
योगेन्द्र मौदगिल जी देश का तो वही होगा जो हम सब मिल कर कर रहे है, अगर बुजुर्गो ने घर बनाया हो, या हवेली तो सपूत उसे बसाये रखते है, ओर कपूत क्या करते है यह कहने की जरुरत नही, ओर इस समय देश मै हर तरफ़ कोन ज्यादा है?? सपूत या कपूत??
आप ने बहुत सुंदर रचना लिखी ओर कविता तो उस से भी बढ कर, एक बात गाडी चलाते समय कभी भी शराब ना पीयो, मेरी तरफ़ से एक राय अगर आप कानून का पालन करना चाहते है तो?ओर यह आप के लिये ओर सालूजा जी के लिये, ओर सडक पर चलाने वालो के लिये... ओर मेरे लिये तो बहुत जरुरी है,
दिल का तार-तार उलझा दिया
aaj to joote hi joote mil rahe hain, pahle isht dev ji ke aur ab aap ke, isse pahle bhi shayad neeraj ji ke mile the.
मुझे बहुत अच्छा प्रतीत हो रहा है भाटिया जी........ लंबी ड्राइव के समय तो नहीं हां लोकल में तो अक्सर लगा लिया करते थे. आज से बंद.............
वैसे भी ताऊ ने बता दिया था कि जर्मनी में लट्ठ बनने बंद नहीं हुये..... प्रणाम..
अरे वाह जी मौदगिल साहब बहुत अच्छी रचना लिख डाली आपने जूतों की और ये भी बता दिया कि आपने नए जूते ले लिए हैं तो बोलो पार्टी कब दे रहे हो अच्छा लिखा है अब मैं इसकी रिकार्डिंग सुनने को बेकरार हो रहा हूं
जूतों का क्या दोष, देश का जो भी हो
मत कर इतना रोष, देश का जो भी हो
भले ही मकड़ी मूते खाली सरकारी खजाने में
भरा बस रहे एमेल्ले कोष, देश का जो भी हो
क्यों गुरुजी.. (वो वाले नहीं), कैसी रही।
झक्कास व्यंग्य, लगे रहो॥
और हाँ, रेकॉर्डिंग सुनाइयेगा जरूर।
आपकी स्प्ष्टवादिता अच्छी लगी !
भाटिया जी की सलाह काम कर गई !
बहुत खूब मौदगिल साहब. बहुत उम्दा व्यंग्य.
वाह मोदगिल साहब........
जुतून को भी घसीट लिया........और जुटे मार दिए आज कल की हालत पर. ठीक ही मारे ज़माना ऐसा ही हो गया है, आपकी अपनी ही शैली मैं कही अतिउताम रचना
जूता लूटनहार देश का क्या होगा ....
जूता थानेदार देश का क्या होगा
बहोत खूब दर्द बयां करा आपने मौदगिल साहब... ढेरो बधाई ..आपको..
अर्श
Yogendra ji
bahut achchha vyangya... hai desh ke halat par.
Hemant Kumar
बहुत बढिया रचना है।
देश की हालत को जूतियों के जरिए बखूबी बताया आपने...बधाई स्वीकारें
गज़ब काव्य सरकार, देश का क्या होगा
वाहवाही हरबार, देश का क्या होगा
बहुत खूब!
हम तो बस यही कहेंगे:
वाह ! वाह !
और क्या कहें हर बार पढ़ने के बाद तालियाँ बजाने का मन करता है... आप तक तो पहुच नहीं पाएंगी, इसलिए तालियों को वाह वाह से रिप्लेस कर दिया !
आजकल तो जूता चर्चा में है ही, तो कवि कैसे बचें इस जूता-वंदना से। अच्छी कविता के लिए बधाई।
is joota roopak ke zariye sabki khabar le li.
salaam kavi ki shakti ko.
मजा आ गया पढ़के. बस ताली बजाने का दिल कर रहा था. अपनी शानदार रचना पढाने के लिए शुक्रिया.
बहुत बढिया. जूते के प्रति आपकी आस्था देखकर अच्छा लगा. ऐसा प्रतीत होता है कि अब जूतावादियों की संख्या में बढोतरी होती ही रहेगी. अगर ऐसा हुआ तो साहित्य में हम लोग एक नई धारा जूतावाद की भी चला सकते हैं. एक टेक और दे रहा हूँ. अंतरा
जूते रस्ता, जूते घोडा, जूते हुए सवार, देश का क्या होगा?
जूते जनता, जूते नेता, जूते ही सरकार, देश का क्या होगा?
वाह मौदगिल जी,क्या खूब जूत वंदना की रचना की है.लेकिन कार्यक्रम का प्रसारण न देख पाने का मलाल जरूर मन में है.
अर एक बात ओर आप मदिरा का भी शौक रखते हैं,यानि कि कवियों/शायरों वाले सारे के सारे गुण आपमें विद्यमान हैं.
अगर हो सके तो भाटिया जी की सलाह पर जरूर अमल करें.
व्यंग्य विधा में यूं तो तमाम रचनाएं पढने को मिलती रहती है, पर आपकी यह रचना बहुत ही जबरदस्त है। मैं आपकी इस लेखनी को सलाम करता हूं।
kya baat hai vayang mein maza aa gaya
Bahut sateek vayang...likhte rahiye...
वत्स जी, शुक्र मानिये कि मदिरा का शौक रखता हूं मंदिरा का नहीं वरना......?
भावना जी, श्रद्धा जी, जाकिर भाई, ईष्टदेव जी, राजीव जी, संजय जी, सीएमप्रसाद जी, अभिषेक जी, अनुराग जी, राजीव जी, बाली जी, हेमंत जी, अर्श जी, दिगंबर जी, मीत जी, विवेक जी, कार्तिकेय जी, मोदन जी, कामन मैन जी, विनय जी और ताऊ जी आप सभी के प्रेम के प्रति नतमस्तक हूं.
गलतियों का क्या.... ये तो होती ही रहेंगी.. क्योंकि गलतियां होती ही होने के लिये हैं...
खैर बिना किसी कंट्रोवर्सी के एक नयी रचना के साथ थोड़ी देर में मिलता हूं.....
हमेशा की तरह इस बार भी विलंब से आना फायदेमंद रहा...इअतनी जबरदस्त रचना के संग-संग इतनी जबरदस्त टिप्पणियां भी पढ़ने को मिल गयीं
वाह-वाह
और ये रोज-रोज बदलती तस्वीरों का रहस्य क्या है कविवर?
बहुत ख़ूब रचना योगी बड्डे, और घटना से संबन्ध भी ।
विनय जी पुनः धन्यवाद. लाल व बवाल जी आपका भी और गौतम जी, बार-बार फोटो बदलने का रहस्य कुछ भी नहीं....
एक बात तो.... का जाने किस भेस में मौदगिल जी मिल जांय
दूसरी बात..... मेरा बेटा आजकल कईं बार मेरे ब्लाग आर computer से छेड़खानी करता है उसी का परिणाम है..... खैर...
teesari baat
aapne is post se pahli post kyon nahi padi....?
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