ग ज ल

पैसा सब कुछ पैसा क्या ?
देख रहा हूं दुनिया क्या ?

दीवारों को फांद ले यार,
दीवारों से डरना क्या ?

स्वर्ग यहीं है, नर्क यहीं,
आना क्या भई जाना क्या ?

देख न पाया इन्सां को,
फिर दुनिया में देखा क्या ?

फूल दिये पत्थर लेकर,
इससे बढ़िया सौदा क्या..

कहीं गेरूआ, पीत कहीं,
परदे ऊपर परदा क्या ?

फिर अपनों को ढूंढ रहा,
फिर खाएगा धोखा क्या ?

कान्हा तो मृगतृष्णा है,
क्या राधा भई मीरा क्या !

चलो 'मौदगिल' और कहीं,
हर डेरे पर रुकना क्या !
--योगेन्द्र मौदगिल

7 comments:

Anil Pusadkar said...

kahin gerua ,peet kahin, parde upar parda kya? bahut sunder khaaskar............. chalo maudgil aur kahin, har dere par rukna kya!

नीरज गोस्वामी said...

स्वर्ग यहीं है, नर्क यहीं,
आना क्या भई जाना क्या ?
बहुत खूब मुदगिल भाई...बहुत खूब...हर शेर लाजवाब है...आप के इस शेर को पढ़कर घलिब के इस शेर की याद आ गयी...
"क्यूँ न दोजख को भी जन्नत में मिला लें यारब
सैर के वास्ते थोडी सी जगह और सही "
नीरज

डा ’मणि said...

सशक्त ग़ज़ल के लिए बधाई हो मौदगिल जी ,
सबसे पुख्ता शेर
फिर अपनों को ढूंढ रहा,
फिर खाएगा धोखा क्या

एक शेर मुझे भी याद आ गया देखिये
" दोस्ती की जड़ में छुपकर बैठती है दुश्मनी
दोस्तों की शक्ल पे मुझको तरस आता रहा
दोस्ती में दुश्मनी करती है दुनिया आजकल
दोस्ती क्या दुश्मनी का भी मज़ा जाता रहा "

आपकी प्रतिक्रिया का इंतज़ार कर रहा हूँ
डॉ .उदय मणि कौशिक
http:mainsamayhun.blogspot.com
umkaushik@gmail.com

बालकिशन said...

बहुत उम्दा... बेहतरीन.

राज भाटिय़ा said...

स्वर्ग यहीं है, नर्क यहीं,
आना क्या भई जाना क्या ?
क्या बात हे,योगेन्द्र जी,आप ने तो सारी सचाई दो शव्दो मे कह दी, बहुत सुन्दर शेर हे आप के धन्यवाद

Advocate Rashmi saurana said...

बिल्कुल सच कह दिया आपने योगेन्द्र जी. बहुत बढ़िया रचना. जारी रहे.

Udan Tashtari said...

कहीं गेरूआ, पीत कहीं,
परदे ऊपर परदा क्या ?

--वाह!! क्या बात है!! बहुत खूब!!