सपनों का अहसास, जरूरी आंखों में.
लम्हा-लम्हा प्यास, जरूरी आंखों में.
कस्में-वादे, हया-वफ़ा, रिश्ते-नाते,
कदम-कदम विश्वास, जरूरी आंखों में.
आएगा, लौटेगा, इक दिन परदेसी,
टिकी रहे ये आस, जरूरी आंखों में.
निंदक में, आलोचक में है फर्क बड़ा,
हरपल ये आभास, जरूरी आंखों में.
आंख खोल कर भी जो देख नहीं पाते,
उनके लिये उजास, जरूरी आंखों में.
मिशन हो के एंबीशन, लाइफ में बंधु,
सपने भी हों खास, जरूरी आंखों में.
पहली नज़र में पेंच अगर लड़ ही जाएं,
फिर तो बाईपास जरूरी आंखों में.
एक नज़्र का खेल 'मौदगिल' खेलो तो,
दृष्टिभेद विन्यास ,जरूरी आंखों में.
--योगेन्द्र मौदगिल
10 comments:
पहली नज़र में पेंच अगर लड़ ही जाएं,
फिर तो बाईपास जरूरी आंखों में.
:) बहुत बढ़िया.
साधुवाद, बहुत अच्छा लिखा है।
मै एक बात कहना चाहूँगा कि जहॉं उर्दू शब्दों का प्रयोग कम से काम हुआ हो उस रचना को गज़ल कहना कहाँ तक ठीक होगा ?
इस तरह की हिन्दी काव्यों के लिये नये नाम की रचना की जानी चाहिऐ।
वाह ! क्या बात है भाई. बहुत बढ़िया.
मौदगिल साहब,
आपका अंदाज़-ए-बयाँ ही कुछ और है। प्रयोग की दृष्टि से भी आपकी गज़ल अनूठी है। मसलन ये शेर: -
पहली नज़र में पेंच अगर लड़ ही जाएं,
फिर तो बाईपास जरूरी आंखों में.
मिशन हो के एंबीशन, लाइफ में बंधु,
सपने भी हों खास, जरूरी आंखों में.
इन शेरो का भी जवाब नहीं:-
कस्में-वादे, हया-वफ़ा, रिश्ते-नाते,
कदम-कदम विश्वास, जरूरी आंखों में.
निंदक में, आलोचक में है फर्क बड़ा,
हरपल ये आभास, जरूरी आंखों में.
बधाई स्वीकारें..
***राजीव रंजन प्रसाद
sapne bhi ho khaas jaruri, aankho me............ bahut badhiya,badhai
महोदय, आप मेरे ब्लॉग पर आए...आप को मई दिल से शुक्रिया करता हूँ. शायद आप ने सही कहा की वैसे भी तो मुर्दे ही सब कुछ कर रहे हैं. खैर ........
आज पहली बार मुझे आप का ब्लॉग देखने का अवसर प्राप्त हुआ.
सो मुझे बहुत अच्छा लगा. वाकई आप तो हिन्दी साहित्य जगत के एक महान स्तम्भ हैं. कृपया मेरी ऐ-मेल पता नोट कर लेवें...ravibhuvns@gmail.com
बहुत बढ़िया।
घुघूती बासूती
कस्में-वादे, हया-वफ़ा, रिश्ते-नाते,
कदम-कदम विश्वास, जरूरी आंखों में.
बिलकुल सही कहा आपने। इस प्यारे से शेर के लिए बहुत बहुत बधाई।
वाह अतिसुन्दर ग़ज़ल..!!
मज़ा आ गया..!!
bhut sundar gajal. badhai ho.
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