एक ग़ज़ल आप सब के लिए

बच्चों के बीच दादी के किस्से संभालिये

बाबा की आन-बान के खूंटे संभालिये

अम्माँ की याद, तुलसी के बिरवे संभालिये
फसलों के साथ आपसी रिश्ते संभालिये

बुआ के साथ रख लियो कुछ मौसियों की याद
और भाभियों से प्यार के हिस्से संभालिये

कुनबे को इस तरह से वो रखता था बाँध कर
उस मिटटी के चूल्हे के वो ज़ज्बे संभालिये

मंदिर की सीढ़ियों का उतरना वो ताल में,
उस पहले-पहले प्यार के चरचे संभालिये

फ्रिज ले तो आए घर में ये भी ठीक है मगर
वो नीम के नीचे धरे मटके संभालिये

रिश्ते तलक हो जाते थे बस खेल खेल में
चौपाल में हँसते हुए बुड्ढे संभालिये

सिलबट्टा, चिमटा, पालना, संदूक, ओखली,
लस्सी, खटोला, ताश के पत्ते संभालिये

शायद दीये की आस लिए सो रहे हैं वो
पीपल के नीचे 'मौदगिल' पुरखे संभालिये
-- योगेन्द्र मौदगिल
प्रस्तुत ग़ज़ल मेरे ग़ज़ल संग्रह 'आजकल के दौर में' से
२३ को नकोदर के कविसम्मेलन में रहा.. 
२६ को सूर जयंती के उपलक्ष में हो रहे कविसम्मेलन में 
फरीदाबाद रहूँगा.. 
आज यहीं मस्ती मारते हैं..
आप सब के साथ जाल-मंच  पर....

मस्त रहो भई मस्ती में
महँगी में या सस्ती में

देख इलेक्शन सर पे है
बँटा है राशन बस्ती में

ग़ालिब तो हम नहीं मगर
रहते फाकामस्ती में

अच्छा है कुछ फर्क रहे
अपनी-अपनी हस्ती में
--योगेन्द्र मौदगिल
9466202099
प्रिय मित्रों....
आप सब के प्रेम से अभिभूत हूँ...
आज पुन: कुछ पंक्तियों के साथ...

मन जो गंदा हो गया फिर..
तन भी मंदा हो गया फिर..

जाल, कुत्ते, देव-दाना,
आस फंदा हो गया फिर..

पोथियाँ पढ़ -पढ़ हमारा
धर्म अंधा हो गया फिर..

झूठ को ओढा-बिछाया,
ख़ास बंदा हो गया फिर..

चेतना बहरी हुई जो
देह धंदा हो गया फिर..

'मौदगिल' जिसने रुलाया
वो ही कंधा हो गया फिर..
--योगेन्द्र मौदगिल
9896202929